दो पाय और चार पाय में भेद


“मनुष्य और पशु में अन्तर”
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मनुष्य और पशुओं में अनेक समानतायें हैं। मनुष्य भोजन करते हैं और पशु भी घास आदि चारा खाकर अपना पेट भरते हैं। मनुष्य श्रम करने के बाद थक जाते हैं और विश्राम करने सहित निद्रा आने पर सो जाते हैं। इसी प्रकार पशु भी श्रम करते और निद्रा लेते है। मनुष्य गृहस्थी बन कर सन्तानों को जन्म देते हैं और पशु व पक्षी आदि मनुष्येतर योनियों में भी सन्तानोत्पत्ति की प्रक्रिया होती है। इन सब बातों में मनुष्य और पशु लगभग समान हैं। मनुष्य को परमात्मा ने कुछ चीजें पशुओं से अतिरिक्त भी दी हैं। मनुष्य के पास दो हाथ हैं परन्तु पशुओं के पास मनुष्य जैसे दो हाथ नहीं हैं जिससे वह मनुष्य जैसे काम नहीं कर सकते। मनुष्य को परमात्मा ने सत्य व असत्य का विवेचन वा मनन करने के लिए बुद्धि दी है जो पशुओं के पास नहीं है। मनुष्य बोल सकता है। अलग-अलग स्थानों पर रहने वाले मनुष्यों के पास अपनी-अपनी अनेक भाषायें हैं जिनसे वह अपने मन व हृदय के भावों को अपने परिवारजनों व मित्रों आदि में अभिव्यक्त कर सकता है। पशुओं को परमात्मा ने इस भाषा की सुविधा से वंचित रखा है। हर बात का कोई न कोई कारण होता है। परमात्मा परम विद्वान है, अतः उसने जिसके साथ जो किया व जिसको जो दिया, वह सब कारण-कार्य के सिद्धान्त के अनुसार है। संसार में भी हम देखते हैं कि जो मनुष्य जिस चीज का दुरुपयोग करता है, उससे वह चीज छीन ली जाती है। आत्मा अनश्वर है, अनादि व सनातन है। इस जन्म से पूर्व भी उसका अस्तित्व था और वह किसी मनुष्य व अन्य योनि में रहती थीं। जिस आत्मा ने पूर्वजन्म में अच्छे शुभ कर्म किये, उन्हें परमात्मा ने मनुष्य का शरीर दे दिया और जिसने पूर्वजन्म में अपने ज्ञान, इन्द्रियों व शक्तियों का दुरुपयोग किया, उनसे परमात्मा ने वह शक्तियां छीन लीं। मनुष्य को परमात्मा ने बुद्धि दी है तो इसका उसे सदुपयोग करना है। यदि वह इसका सदुपयोग नहीं करेगा तो निश्चय ही इससे यह सब इन्द्रियां, करण व यन्त्र आदि छीन लिये जायेंगे। पशु व पक्षी आदि योनियों को देखकर परमात्मा के इस न्याय की पुष्टि होती है।   


मनुष्य और पशुओं में एक प्रमुख अन्तर उनकी वैचारिक प्रणाली है। मनुष्य विचार कर सकता है और सत्य व असत्य का निर्णय कर सकता है। विचार करने के लिये भाषा की आवश्यकता होती है। संसार में अनेक भाषायें हैं परन्तु इन सभी भाषाओं का उद्गम वेदों की संस्कृत भाषा है। वेद संसार के प्रथम व आदि ग्रन्थ हैं। वेद में सब सत्य विद्याओं का भण्डार है। वेदों का ज्ञान सृष्टि के आरम्भ मे ंपरमात्मा से प्राप्त हुआ था। परमात्मा यदि सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों को वेदों का ज्ञान न देता तो सभी मनुष्य भाषा एवं ज्ञान से वंचित रहते। ईश्वर की सबसे बड़ी कृपाओं में से एक उसका मनुष्यों को वेदों का ज्ञान देना है। वह लोग जो मनुष्य जन्म लेकर भी वेदों का अध्ययन नहीं करते, ईश्वर, जीवात्मा और सृष्टि के सत्यस्वरूप को जानने का प्रयास नहीं करते और सत्याचरण नहीं करते, वह सब मनुष्य सिद्ध नहीं होते। वह संसार में भाररूप हैं। ऐसे लोग सत्य के विपरीत जो-जो आचरण करते हैं वह पशुओं से भी हीन व निम्नतर प्राणी होते हैं। परमात्मा ने सूर्य को प्रकाश और ताप देने तथा संसार की ऋतुओं के परिवर्तन करने सहित रात्रि व दिवस आदि को वर्तमान करने के लिये किया है। जिस प्रयोजन से सूर्य, चन्द्र व पृथिवी आदि ग्रह-उपग्रह बनाये गये हैं, यह सब अपने नियमों व उद्देश्यों का पूरा-पूरा पालन कर रहे हैं। मनुष्य को भी अपने पूर्वजन्मों के कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल भोगने के लिये बनाया गया है। इसके साथ उसे अपने भविष्य और भावी पुनर्जन्म के लिये भी सद्कर्मों का संग्रह करना है। जो ऐसा करते हैं वह प्रशंसा के पात्र होते हैं और जो नहीं करते, वह ईश्वर प्रदत्त मानव योनि का सदुपयोग न करने के कारण भविष्य में इस मनुष्य जन्म से वंचित किये जाने के पात्र बनते हैं। अतः मनुष्य को चिन्तन व मनन कर अपने कर्तव्य एवं अकर्तव्य का अवश्य विचार करना चाहिये और कर्तव्यों का पालन करने के साथ अकर्तव्यों का त्याग करना ही मनुष्य का प्रमुख धर्म होता है। ऐसा करने से हमें सुख व उन्नति का लाभ होता है। हम संसार में जिन उन्नत, सुखी व सफल व्यक्तियों को देखते हैं वह प्रायः अपने ज्ञानयुक्त परिश्रम व तप से ही आगे बढ़े हैं। पुरुषार्थ करके धन व सम्पत्ति तो अर्जित की जा सकती है और यश भी अर्जित होता है परन्तु वेदविहित ईश्वरोपासना और देवयज्ञ अग्निहोत्र कर्म न करने से मनुष्य के जीवन का उद्देश्य अधूरा रहता है। अतः मनुष्य के लिये वेदाध्ययन अनिवार्य है। वह यदि वेदाध्ययन करेगा तो उसे इसका लाभ मिलेगा अन्यथा वह इससे वंचित होकर भावी जन्मों में हानि को प्राप्त होगा। 


मनुष्य का अपना एक धर्म है जिसका अर्थ है सत्य का आचरण। कर्तव्य पालन को भी धर्म कहते हैं। मनुष्य जिन श्रेष्ठ गुणों को धारण कर सकता है, उनको धारण करना भी धर्म कहलाता है। जो निन्दित गुण होते हैं उनको जीवन में स्थान नहीं देना चाहिये क्योंकि यह मनुष्य को धर्म पालन से दूर करते हैं। मनुष्य जिन गुणों का ग्रहण, धारण व आचरण करता है वह अपनी बुद्धि और अर्जित ज्ञान के आधार पर सोच विचार कर करता है। मनुष्य से इतर पशु आदि किसी योनि की आत्माओं को चिन्तन मनन कर सत्य व ज्ञानपूर्व अपने कर्तव्यों का निर्धारण करने की सामथ्र्य नहीं है। वह वही करते हैं जिसका ज्ञान परमात्मा ने उनकी आत्माओं में कर रखा है। सभी पशु व पक्षियों के कर्म प्रायः ईश्वर के द्वारा नियत हैं। अतः वह या तो वनों में विचरण करते हैं या अपने मनुष्य रूपी स्वामियों के घरों पर बन्धे रहते हैं और उनसे जो काम लिया जाता है उसे वह करते हैं। यह सभी पशु हमें यह शिक्षा देते हैं कि हमने पूर्वजन्म में कुछ अनुचित वा अशुभ किये थे जिस कारण परमात्मा ने हमें सजा व दण्ड के रूप में पशु आदि योनि में जन्म दिया है। तुम मनुष्य हमसे शिक्षा लेकर कभी कोई अनुचित काम मत करना अन्यथा तुम्हारी भी हमारे समान दशा होगी। इन सब बातों पर विचार कर ही वेद के विद्वान व बुद्धिमान विवेकी जन सद्कर्मों में ही अपने जीवन को लगाते रहे हैं। ऋषि दयानन्द के जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो हमें लगता है कि वह बौद्धिक दृष्टि से बहुत अधिक विकसित थे। उन्होंने वेद व समस्त प्राचीन उपलब्ध साहित्य को पढ़कर अपने भविष्य को लक्ष्य मोक्ष तक पहुंचाने का निर्णय किया था और श्रेष्ठ कर्मों को करके हमारे सामने एक आदर्श उपस्थित किया है। हमें राम, कृष्ण, दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं0 लेखराम, पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, पं0 चमूपति, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, पं0 युधिष्ठिर मीमांसक, डाॅ0 आचार्य रामनाथ वेदालंकार आदि जैसे महान पुरुषों का अनुकरण एवं अनुसरण करना चाहिये। ऐसा करके ही हम भविष्य में सुखी व सन्तुष्ट रह सकते हैं। ऐसा न करने पर और धनोपार्जन व सम्पति संग्रह आदि में फंसे रहकर हम अपने भावी जीवन में अपने लिये अनेक कठिनाईयां एवं दुःख उत्पन्न करेंगे। धर्म ही मनुष्यों को अभ्युदय एवं निःश्रेयस प्रदान करता है। धर्महीन मनुष्य पशु से भी निम्नतर होता है। आतंकवादियों पर यह बात शतप्रतिशत लागू होती है जो मानवता एवं मानव के कर्तव्यों से सर्वथा दूर होते हैं और मत-पंथ-मजहब की मिथ्या मान्यताओं के दुष्चक्र में फंस कर सज्जन धार्मिक लोगों को दुःख देते हैं। यह ईश्वर के दण्ड से बच नहीं सकते। किसी भी बुरे काम करने वाले मनुष्य को चाहे वह किसी भी मत का अनुसरण करें, उसके दुष्कर्मों के परिणामस्वरूप किंचित भी सुख नहीं मिल सकता। अज्ञानी मनुष्य का सुख उसके किसी भावी बड़े दुःख का कारण हो सकता है। 


पशुओं एवं पक्षियों सहित हम वृक्षों व जड़ पदार्थों से भी जीवन में अनेक शिक्षायें ले सकते हैं। गाय दूध देकर हमारा पालन करती है। उसके उपकारों से मनुष्य कभी उऋण नहीं हो सकता। भेड़, बकरी, अश्व व हस्ति आदि से भी हमें नाना प्रकार के लाभ होते हैं। इनके भी हम ऋण होते हैं। जड़ पदार्थों में जिन्हें हम देवता कहते हैं वह सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, अग्नि, वायु, जल, आकाश आदि भी हमें अपने-अपने धर्म का पालन करते हुए हमारे जीवन को सुखद बनाते हैं। इनके भी हम ऋणी हैं। हमारा कर्तव्य है कि हम पृथिवी के भौतिक पदार्थों का सदुपयोग करते हुए इन्हें किसी प्रकार से दूषित न करें। इनका अल्प मात्रा में सदुपयोग करें और अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिये इसे स्वच्छ एवं उतनी ही मात्रा में छोड़कर जाने का प्रयत्न करें जितनी मात्रा यह हमें प्राप्त हुए थे। यदि हम वायु व जल आदि का प्रदूषण करते रहे और वनों को काटकर भूमि पर भवन, उद्योग एवं सड़के आदि बनाते रहे तो आने वाली पीढ़ियों को इससे असुविधा होगी। इसका अर्थ होगा कि हमने अपनी भावी पीढ़ियों के हितों की अनदेखी की और प्रकृति के साधनों का अन्धाधुन्ध उपभोग किया है। ऐसा करना उचित नहीं जबकि वर्तमान व्यवस्था हमें अधिक से अधिक आवश्यकता की वस्तुओं का उपभोग करने की प्रेरणा करती है। 


मनुष्य एवं पशुओं में बहुत सी समानतायें हैं। हमारा महत्व तभी है जब हम पशुओं की तुलना में अपने ज्ञान एवं आचरण से श्रेष्ठता सिद्ध करें। यदि हम वेद, सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का नियमित स्वाध्याय करते हैं और तर्क एवं युक्ति से सिद्ध होने वाले सत्य कर्मों व उद्देश्यों की पूर्ति के लिये श्रेष्ठ सत्य आचरण करते हैं तो हम मनुष्य होने पर पशुओं से श्रेष्ठ कहे जा सकते हैं। भ्रष्टाचार, देश के अहित करने वाले विचारों व कार्यों में फंसकर तथा स्वार्थों में पड़कर हम पशुओं से भी निम्न कोटि के प्राणी सिद्ध होते हैं। ओ३म् शम्। 


-मनमोहन कुमार आर्य


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