समता क्रान्ति के प्रणेता श्री नारायण गुरु के जन्म दिवस पर विशेष


राम दुलार यादव
समता क्रान्ति के प्रणेता, अस्पृश्यता, अगम्यता के घोर विरोधी, अशिक्षा, अंधविश्वास, रूढ़िवाद, परम्पराओं और प्रथाओं से समाज को मुक्ति का सन्देश देने के लिए प्रयत्नशील, महामानव श्री नारायण गुरु का जन्म 20 अगस्त 1854 को केरल की राजधानी त्रिवेन्द्रम के चम्पदंती कस्बे में इढवा जाति में हुआ था। वे धार्मिक पाखण्ड के घोर विरोधी थे, देवी, देवताओं के रखे मेवा, मिठाइयों को परिवार द्वारा चढाने से पहले खा जाते थे, तथा कहते थे कि मै खुश रहूँगा तो देवगण स्वयं प्रसन्न रहेंगें। उनकी बुद्धि तीक्ष्ण, याददास्त बेजोड़ थी। वे जब ग्रामीण पाठशाला में अध्ययन करने लगे तो अल्प समय में ही मलयालम, संस्कृत व तमिल भाषा का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। इसके बाद इन्हें करुनाग पल्ली स्थित पटुपल्ली रामन आशन के स्कूल में अध्ययन के लिए भेजा गया, वह एक प्रसिद्द शिक्षण संस्थान था, इनकी विलक्षण प्रतिभा को देखकर शिक्षक भी चकित हो गये, इन्हें स्कूल मानीटर और सहायक शिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया। उन्होंने वहां अपना प्रभाव जमा लिया, तथा उनके विचार में यह घर कर गया कि अज्ञानता और अन्धविश्वास ही सबसे बड़ी सामाजिक बुराई है, जिसने जातिवाद, धार्मिक पाखण्ड और अस्पृश्यता समाज में पैदा किया है, मै संकल्प लेता हूँ कि इसे जड़-मूल से नष्ट करने के लिए काम करूँगा, मानवतावादी समाज की स्थापना करूँगा।
नारायण गुरु के समय में केरल में जातिवादी व्यवस्था चरम पर थी, सामाजिक व्यवस्था गर्हित अवस्था में थी, ब्राह्मण, नायर से 32 फीट, नायर, इढवा से 64 फीट, इढवा, पुतया और परया से 1000 फीट की दूरी से बात करने की प्रथा थी, वह भी बोलते समय मुंह को एक हाथ से बन्द रखना पड़ता था, कि प्रभू, मनुवादी अपवित्र न हो जाय। कितना कलंक और अभिशाप पूर्ण गली-सड़ी व्यवस्था अहंकारयुक्त उसके बाद भी शिक्षा ग्रहण कर लेने पर भी इनके साथ अमानवीय व्यवहार में कोई कमी नहीं आती थी, न सरकारी नौकरी में प्रवेश मिलाता था, न मन्दिर में पूजा भी कर सकते थे, मन्दिर की बाहरी दीवार से एक निश्चित, निर्धारित दूरी से पूजा देखने की व्यवस्था थी, इतना घोर अन्याय मानव के द्वारा मानव का देख श्री नारायण गुरु द्रवित हो गये, तथा उन्होंने घर छोड़ दिया। सन्यासी का जीवन जीते हुए गाँव-गाँव जाकर दीन-दुखियों, पिछडो, दलितों, मुस्लिम, ईसाईयों में भी अज्ञानता, रूढ़िवाद, अस्पृश्यता के विरुद्ध अलख जगाते रहे, तथा मुक्ति का मार्ग बताते रहे। उनका जन-जन में सन्देश था कि मानव जाति एक है, शराब जहर है, न उसका उत्पादन करना चाहिए, न दूसरों को देना चाहिए, न स्वयं पीना चाहिए। लोगों के कल्याण के लिए उन्होंने “नारायण धर्म नारायण गुरु समझ गये थे जनता की प्रगति और समृद्धि में सबसे बड़ी बाधा अशिक्षा, अज्ञानता, अन्धविश्वास, परम्पराएं, प्रथाएँ, धार्मिक पाखण्ड है। यह शिक्षा से ही दूर हो सकता है, तथा संगठित हो शक्ति प्राप्त कर स्वतंत्रता मिल सकती है, अन्धविश्वास, जाति, वर्ण व्यवस्था, असमानता, अस्पृश्यता, पर कठोर प्रहार किया, उनके कार्य से प्रभावित हो महात्मा गाँधी, विनोवाभावे, रवीन्द्रनाथ टैगोर व स्वामी श्रद्धानंद उनसे मिलने उनके आश्रम में गये, उन्होंने अनेकों पुस्तकालय, कताई-बुनाई केन्द्र, काजीवरम में आयुर्वेदिक औषधालय स्थापित किये। वे सभी धर्मों का आदर करते थे, तथा समतामूलक समाज बनाने के प्रबल पक्षधर थे, उनका मानना था सबको समान अधिकार मिले, सभी शिक्षित हो, देश, समाज को संपन्न बनाने के लिए पूरी ताकत लगायें, अंधभक्ति, अन्धविश्वास, अंधश्रद्धा के घोर विरोधी रहे| नारायण  गुरु महिलाओं को मुख्यधारा में लाने के लिए असहाय व अनाथ महिलाओं के लिए “सेविका समाज” संस्था स्थापित की, यह संस्था महिलाओं द्वारा ही संचालित थी। उन्होंने मानव को शिक्षा के क्षेत्र में अच्छा अवसर प्राप्त हो अनगिनित पुस्तकालयों की सथापना की।



    19वीं सदी में भारत की दशा सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक दृष्टि से दयनीय थी, केरल भी उससे अछूता नहीं था, यहाँ नवजागरण श्री नारायण गुरु के माध्यम से ही चरमोत्कर्ष पर पहुंचा व जीवन के हर क्षेत्र कला, साहित्य, विज्ञान, धर्म, राजनीति तथा समाज में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन का सूत्र पात हुआ। उन्होंने दैत्य पूजा, शराब, जीवबलि को समाप्त करवाया। उन्होंने अपने अनुयायिओं को शिक्षा, उद्योग धंधे, कृषि, व्यापार, गृह उद्योग, तकनीक ज्ञान प्राप्त करने के लिए लोगों को जागृति करने में लगाया। मानव-मानव में कोई अन्तर नहीं है, समान अवसर प्राप्त होने पर सभी संपन्न हो सकते है। जाति, रंग, नस्ल, वेशभूषा में विभिन्नता के बाद भी सब एक जाति के हैं। 
    रैपेलियसप्रोफिट के लेखक का कहना है कि “नारायण गुरु सही मायने में क्रान्तिकारी थे, जीवन के हर क्षेत्र में पाखंडियों के विरुद्ध उन्होंने बगावत की, वे सन्यासी थे, वे समता, न्याय पर आधारित सामाजिक व्यवस्था की स्थापना के आकांक्षी थे। जातियता को निर्ममूल के लिए उन्होंने आन्दोलन किया। महामानव नारायण गुरु ने वंचितों, दलितों, अस्पृश्यों को अधिकारों, कर्तव्यों का बोध कराते हुए सम्मान से आत्मनिर्भर बनने का सन्देश दिया, जातिविहीन, वर्गविहीन समाज की स्थापना के लिए, जाति बंधन की मुक्ति के लिए सारा जीवन लगा दिया”।
  मानव जाति को शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यापार, उद्योग, तकनीक का रास्ता दिखाकर समता क्रांति का प्रणेता वह महामानव 20 सितम्बर 1928 को शिवगिरी में संसार से विदा ले प्रकृति के गोद में स्थान बनाया। हमें इस महामानव के त्याग, बलिदान, मानव समाज के लिए किये गये क्रान्तिकारी परिवर्तन से प्रेरित हो देश, समाज में सद्भाव, भाईचारा, न्याय, बंधुत्व, प्रेम, सहयोग कायम करना चाहिए।
                                                            लेखक
राम दुलार यादव                                                                   शिक्षाविद, समाजवादी चिन्तक                                    


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