“सृष्टि की उत्पत्ति रक्षण एवं प्रलय का ज्ञान विज्ञान सम्मत वैदिक सिद्धान्त”


-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
हम संसार में रहते हैं और इस सृष्टि का साक्षात् व प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। हम जानते व मानते हैं कि इस सृष्टि का अस्तित्व सत्य एवं यथार्थ है। हमारी सभी ज्ञान इन्द्रियां हमारे सृष्टि के प्रत्यक्ष एवं यथार्थ होने की पुष्टि करती हैं। हम आंखों से इस सृष्टि को देखते हैं, कानों से इसमें होने वाले शब्दों व स्वरों को सुनते हैं, त्वचा से वायु का स्पर्श व अनुभव करते हैं तथा नासिका से नाना प्रकार की गन्धों को सूंघ कर उन द्रव्यों व पदार्थों के होने का साक्षात अनुभव करते हैं। अतः हमारी सूर्य, चन्द्र, ग्रह, उपग्रहों वाली यह सृष्टि साक्षात एवं प्रत्यक्ष है। प्रश्न होता है कि यह सृष्टि कब से है और कब तक रहेगी? क्या यह हमेशा से है अर्थात् नित्य व अविनाशी है? ऐसा होना सम्भव नहीं है। हम सृष्टि में विकार व परिवर्तन देखते हैं। जिस वस्तु में विकार व परिवर्तन होते हैं वह स्थाई व अविनाशी नहीं होती। सृष्टि के पदार्थों के छोटे छोटे टुकड़े किये जा सकते हैं। इसका अर्थ यह है कि बड़े पदार्थ छोटे अणु व परमाणुओं से मिलकर बने हैं। अणु व परमाणु भी नष्ट व अवस्था परिवर्तन को प्राप्त होते व किये जा सकते हैं। इससे अणु व परमाणु भी नित्य पदार्थ नहीं है। अतः अतीत काल में हमारी सृष्टि का किसी उपादान कारण तथा निमित्त कारण बनना सुनिश्चित होता है।
सृष्टि की उत्पत्ति का निमित्त चेतन कारण व उपादान जड़ कारण कौन से पदार्थ हैं? इसका उत्तर हमें वेद व वैदिक साहित्य उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति आदि से प्राप्त होता है। ऋषि दयानन्द वेद, ब्राह्मण, उपनषिद तथा दर्शन सहित वैदिक साहित्य के मर्मज्ञ थे। उन्होंने वैदिक साहित्य के आधार पर मनुष्यों की सृष्टि विषयक सभी शंकाओं का समाधान करने सहित उन्हें वैदिक ज्ञान से परिचित कराने के लिये विश्व का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश दिया है। वह युक्ति तर्क एवं प्रमाणों के आधार पर कहते हैं कि हमारा यह समस्त चराचर संसार वा सृष्टि अनादि, नित्य, सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सृष्टिकर्ता परमात्मा से उत्पन्न हुई है। यह निश्चय है कि इस सृष्टि को अनादि, नित्य, सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान सत्ता ही बना सकती है। उसी से हमारा यह चराचर वा जड़ चेतन अर्थात् भौतिक व अभौतिक जगत बना है। इस सृष्टि को देखकर इसके रचयिता व कर्ता ईश्वर का ज्ञान होता है तथा ईश्वर होने का प्रमुख प्रमाण इस सृष्टि व इसमें होने वाली नाना प्रकार की क्रियायें यथा सूर्योदय, सूर्यास्त, पृथिवी व सभी ग्रहों का भ्रमण, ऋतु परिवर्तन, मनुष्य आदि प्राणियों की उत्पत्ति, पालन व जन्म व मरण की व्यवस्था को देख कर होता है। महर्षि दयानन्द ने सृष्टि की उत्पत्ति व स्थिति विषयक जो वचन सत्यार्थप्रकाश में कहें हैं उन पर भी दृष्टिपात कर लेते हैं। 
ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में ऋग्वेद तथा यजुर्वेद के चार मन्त्रों को प्रस्तुत कर उनके अर्थों पर प्रकाश डाला है। मन्त्रों के अर्थ सृष्टि की उत्पत्ति पर प्रकाश डालते हैं। यह चार मन्त्र बताते हैं कि हे मनुष्य! जिस से यह विविध सृष्टि प्रकाशित हुई है, जो धारण और प्रलयकर्ता है, जो इस जगत् का स्वामी है, जिस व्यापक में यह सब जगत् उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय को प्राप्त होता है, वह परमात्मा है। उस परमात्मा को तू जान और उसके स्थान पर किसी दूसरी सत्ता को सृष्टिकर्ता मत मान। दूसरा मन्त्र कहता है कि यह सब जगत् सृष्टि से पहले अन्धकार से आवृत, रात्रिरूप में जानने के अयोग्य, सब जगत् आकाशरूप तथा तुच्छ अर्थात् अनन्त परमेश्वर के सम्मुख एकदेशी आच्छादित था। पश्चात् परमेश्वर ने अपने सामथ्र्य से कारणरूप प्रकृति से कार्यरूप जगत कर दिया। तीसरे मन्त्र में कहा गया है कि हे मनुष्यों! जो सब सूर्यादि तेजस्वी पदार्थोें का आधार और जो यह जगत् हुआ है और होगा उस का एक अद्वितीय पति परमात्मा इस जगत् की उत्पत्ति के पूर्व विद्यमान था और जिसने पृथिवी से लेके सूर्यपर्यन्त सब जगत् को उत्पन्न किया है, उस परमात्मा देव की प्रेम से भक्ति किया करें। यजुर्वेद के मन्त्र में कहा गया है कि हे मुनष्यों! जो सब में पूर्ण पुरुष, जो नाश रहित कारण है, सब जीवों का स्वामी है, जो पृथिवी आदि जड़ और जीव से अतिरिक्त है, वही पुरुष इस सब भूत भविष्यत् और वर्तमानस्थ जगत् का बनाने वाला है। तैत्तिरीयोपनिषद के एक वचन में यह कहा गया है कि जिस परमात्मा के रचने से यह सब पृथिव्यादि भूत उत्पन्न होते हैं, जिससे जीते और जिससे प्रलय को प्राप्त हैं, वह ब्रह्म (ईश्वर) है। इस ईश्वर को जानने की इच्छा करो। शारीरिक सूत्र में कहा गया है कि जिससे इस सृष्टि का जन्म, स्थिति और प्रलय होता है, वही ब्रह्म वा ईश्वर जानने योग्य है। इन सब प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है हमारी इस सृष्टि को ब्रह्म अर्थात् अनादि व नित्य परमात्मा ने ही रचा है। वही इसका पालन कर रहा है तथा उसी के द्वारा सृष्टिकाल पूरा होने पर इस सृष्टि की प्रलय होती है। प्रलयकाल की समाप्ति के बाद पुनः प्रकृति के सत्व, रज व तम कणों से सृष्टि का आविर्भाव व रचना परमात्मा के द्वारा होती है।
ऋषि दयानन्द ने सृष्टि की उत्पत्ति, इसके पालन व प्रलय विषयक सामान्य मनुष्यों के प्रश्नों को स्वयं उपस्थित कर उनका समाधान भी किया है। इससे सृष्टि की उत्पत्ति व प्रलय का पूर्ण रहस्य समझ में आ जाता है। उन्होंने बताया है कि यह जगत् निमित्त कारण परमात्मा से उत्पन्न हआ है परन्तु इसका उपादान कारण प्रकृति है। वह बताते हैं कि प्रकृति को परमात्मा ने उत्पन्न नहीं किया अपितु यह अनादि व अनुत्पन्न है तथा इसकी सत्ता स्वयंभू अर्थात् अपने आप है। मूल प्रकृति को परमात्मा ने नहीं बनाया व रचा है। अनादि पदार्थों पर प्रकाश डालते हुए वह कहते हैं कि अनादि उसे कहते हैं जो सदा से हो और सदा रहेंगे। जिनका कभी नाश व अभाव नहीं होगा। संसार में ईश्वर, जीव तथा प्रकृति को वह अनादि व नित्य बताते हैं। ऋग्वेद एवं यजुर्वेद के मन्त्रों के आधार पर वह कहते हैं कि जो ब्रह्म और जीव दोनों चेतनता और पालनादि गुणों से सदृश, व्याप्य व्यापक भाव से संयुक्त परस्पर मित्रतायुक्त, सनातन, अनादि हैं और वैसा ही अनादि मूलरूप कारण और शाखारूप कार्ययुक्त वृक्ष अर्थात् जो स्थूल होकर प्रलय में छिन्न भिन्न हो जाता है, वह तीसरा अनादि पदार्थ प्रकृति है। इन तीनों अनादि पदार्थों के गुण, कर्म और स्वभाव भी अनादि हैं। इन जीव और ब्रह्म में से एक जो जीव है वह इस वृक्षरूप संसार में पापपुण्यरूप फलों को अच्छे प्रकार भोक्ता है और दूसरा परमात्मा कर्मों के फलों को न भोक्ता हुआ चारों ओर अर्थात् भीतर बाहर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है। जीव से ईश्वर, ईश्वर से जीव और दोनों से प्रकृति भिन्न स्वरूप है तथा तीनों अनादि हैं। ऋषि यजुर्वेद के प्रमाण से यह भी बताते हैं कि अनादि सनातन जीवरूप प्रजा के लिये परमात्मा ने वेद द्वारा सब विद्याओं का बोध किया है।
उपनिषद में कहा गया है कि प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनांे अज अर्थात् जिन का जन्म कभी नहीं होता है। यह तीनों न कभी जन्म लेते हैं अर्थात् ये तीन सब जगत् के कारण हैं। इनका कारण अर्थात् उत्पत्तिकर्ता व रचयिता कोई नहीं है। इस अनादि प्रकृति अर्थात् संसार का भोग अनादि जीव करता हुआ इसमें फंसता है और उस में परमात्मा न फंसता और न उस का भेाग करता है। ईश्वर व जीव का लक्षण बताने के बाद ऋषि दयानन्द ने प्रकृति का लक्षण भी बताया है। सांख्य सूत्रों के आधार पर वह प्रकृति व संसार की उत्पत्ति को बताते हुए कहते हैं कि सत्व, रजः तथा तमः यह तीन वस्तुए मिलकर जो एक संघात है उस का नाम प्रकृति है। उस से महतत्व बुद्धि, उससे अहंकार, उससे पांच तन्मात्रा सूक्ष्मभूत और दश इन्द्रियां तथा ग्यारहवां मन, पांच तन्मात्राओं से पृथिव्यादि पांच भूत ये तेईस पदार्थ तथा चैबीस और पंच्चीसवां पुरुष अर्थात् जीव और परमेश्वर है। इन में से प्रकृति अविकारिणी और महतत्व, अहंकार तथा पांच सूक्ष्म भूत प्रकृति का कार्य और इन्द्रिया मन तथा स्थूलभूतों का कारण हैं। पुरुष अर्थात् जीव व परमात्मा न किसी की प्रकृति, न उपादान कारण और न किसी का कार्य हैं।
इसके बाद भी ऋषि दयानन्द ने सृष्टि की उत्पत्ति और पालन आदि विषय मे होने वाले सभी प्रश्नों को प्रस्तुत कर उन सबका भी समाधान किया है। अतः पाठक बन्धुओं को सत्यार्थप्रकाश का आठवां समुल्लास पढ़कर सृष्टि उत्पत्ति विषयक अपनी समसत शंकाओं का समाधान करना चाहिये। हमने इस लेख में संक्षेप में सृष्टि की उत्पत्ति विषयक वैदिक सिद्धान्त को प्रस्तुत किया है। यही सिद्धान्त सत्य, ज्ञान व विज्ञान से युक्त तथा वैज्ञानिक सिद्धान्त हैं। कभी न कभी वैज्ञानिकों को इस सृष्टि की उत्पत्ति विषयक वेद के सिद्धान्तों को स्वीकार करना ही होगा। इसके लिये मन व हृदय की शुद्धता, वेदों व वैदिक साहित्य का ज्ञान तथा निष्पक्षता की आवश्यकता है। इस ज्ञान के आधार पर वेदों के ईश्वर से उत्पन्न होने पर भी प्रकाश पड़ता है। वेद 1 अरब 96 करोड़ वर्ष से धरती पर विद्यमान हैं और सत्य तथ्यों व ज्ञान के प्रकाशक हैं जबकि विगत चार पंाच हजार वर्षों में मत-मतानतरों की पुस्तकों में अविद्यायुक्त कथनों की बहुतायत है। आवश्यकता सब मतों के मनुष्यों के निष्पक्ष होकर सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग करने की है। यह सत्य एवं निर्विवाद है कि हमारी यह समस्त सृष्टि सच्चिदानन्दस्वरूप, नित्य, अनादि, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान तथा सर्वज्ञ परमात्मा से ही बनी है। वही इसका पालक व नियामक है। उसी से इसकी प्रलय होती है। यह सृष्टि परमात्मा ने अपनी अनादि व नित्य प्रजा जीवों के लिये बनाई है। भोग व अपवर्ग ही जीवों का उद्देश्य व लक्ष्य है।
-मनमोहन कुमार आर्य
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