Wednesday, 25 November 2020

“हम श्रेष्ठ वैदिक धर्म एवं संस्कृति के अनुयायी होने से भाग्यशाली हैं”



हमारा जन्म भारत में हुआ है। भारत ही वह देश है जो धर्म एवं संस्कृति के सृजन का केन्द्र वा उत्पत्ति स्थान है। सृष्टि के आरम्भ में वेदों का आविर्भाव इसी प्राचीन देश आर्यावर्त के तिब्बत में परमात्मा से हुआ था। समस्त वेद ही धर्म का मूल एवं आधार है। वेद की भाषा वैदिक संस्कृत है जो संसार की सभी भाषाओं में सर्वोत्कृष्ट है। इसी भाषा में वेद की शिक्षायें व सिद्धान्त भी सर्वथा सत्य हैं। वैदिक शिक्षायें अज्ञान व अविद्या से रहित हैं जिससे मनुष्य आध्यात्मिक एवं भौतिक उन्नति की दृष्टि से शिखर को प्राप्त होता है। वैदिक धर्माचरण से मनुष्य मोक्ष प्राप्ति के द्वार पर पहुंचते व उसे प्राप्त करते हैं। अनेक संगठनों व मत-मतान्तरों को यह भी ज्ञात नहीं है कि ईश्वर अनादि व नित्य तथा अजर व अमर सत्ता है। उसी परमात्मा से यह सृष्टि बनी है। सृष्टि की उत्पत्ति और मनुष्य जन्म मनुष्य को भोग व अपवर्ग अर्थात् मोक्ष प्राप्त कराने के लिए परमात्मा द्वारा उत्पन्न किये गये हैं। किन कर्मों से आत्मा की उन्नति होकर उन्नति व किन कर्मों से बन्धन होता है, इसका भी ठीक ठीक ज्ञान अनेक मतों व उनके आचार्यों को नहीं हैं। मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है? उस उद्देश्य को कैसे प्राप्त किया जा सकता है, इसका युक्ति संगत स्वरूप वेद व वैदिक धर्म में ही उपलब्ध होता है। पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध के बाद संसार में विद्या का प्रचार व प्रसार अवरुद्ध हो जाने के कारण लोग इन वैदिक शिक्षाओं व सिद्धान्तों को भूल गये थे और अविद्या में फंसकर नाना प्रकार से दुःख उठा रहे थे। ऐसे समय में ऋषि दयानन्द का आगमन हुआ जिन्होंने सब दुःखों व समस्याओं का कारण अविद्या को जानकर उसे दूर करने के उपाय खोजे और वेद प्रचार द्वारा मनुष्यों को वेदामृत का पान कराकर वेदाध्ययन व आचरण को ही सब समस्याओं और दुःखों को दूर करने का उपाय बताया। ऋषि दयानन्द ने मुख्यतः वेद प्रचार का कार्य किया जिससे मृत प्रायः आर्य हिन्दू जाति में नया जीवन आया और आज यह जाति धर्म व संस्कृति की दृष्टि से विश्व की सबसे उन्नत जाति जानी जाती है। 

हमारा धर्म व संस्कृति क्या है? इसका उत्तर है कि हमारा धर्म एवं संस्कृति वेदों से उत्पन्न व उस पर आधारित वैदिक धर्म एवं संस्कृति है। वेद सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर की प्रेरणा से ऋषियों के हृदय में उत्पन्न हुए थे। सभी चार वेद ज्ञान व विज्ञान के ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों में मनुष्य जीवन को उन्नत व उत्कृष्ट बनाने के सभी उपाय बतायें गये हैं। मनुष्य जीवन की उन्नति वेदाध्ययन कर ज्ञान प्राप्ति से होती है। सद्ज्ञान की प्राप्ति से आत्मा और शारीरिक उन्नति सहित सामाजिक उन्नति भी होती है। वेदाध्ययन से ईश्वर के सत्यस्वरूप का ज्ञान होता है। सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से वेदों का महत्व व उसका स्वरूप समझ में आता है। इसे पढ़कर हम वेद के सभी सिद्धान्तों व मान्यताओं को जान सकते हैं। ईश्वर तथा आत्मा सहित प्रकृति का सत्यस्वरूप वेद व ऋषिप्रोक्त वैदिक साहित्य से ही जाना जाता है। ईश्वर तथा आत्मा अनादि, नित्य, अविनाशी तथा चेतन पदार्थ हैं। प्रकृति अनादि व नित्य है तथा जड़ सत्ता है। ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सृष्टिकर्ता तथा जीवों के पाप-पुण्य कर्मों का फल प्रदाता है। मनुष्य व सभी प्राणियों का आत्मा एकदेशी, ससीम, कर्मों के फलों का भोक्ता होने सहित वेदज्ञान को प्राप्त होने वाला तथा सदाचार से भक्ति व उपासना कर ईश्वर को प्राप्त होकर आनन्दमय मोक्ष को प्राप्त होता है। मनुष्य के लिये प्राप्तव्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष रूपी पदार्थ ही हैं। इनके विपरीत जीवनयापन करने से मनुष्य का जीवन आयु के उत्तरकाल तथा परजन्म में अनेकानेक दुःखों को प्राप्त होता है जबकि वैदिक धर्म का पालन करने से मनुष्य का जन्म व युवावस्था का समय, उत्तरकाल की आयु के जीवन की अवधि तथा परजन्म में वह सुख एवं आनन्द से युक्त होता है। वैदिक धर्म के सिद्धान्तों को ऋषि दयानन्द वेद, दर्शन एवं उपनिषद आदि सभी शास्त्रों के विचारों द्वारा सिद्ध करते हैं। हम वेद तथा दर्शन आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर भी ऋषि दयानन्द के सिद्धान्तों का प्रत्यक्ष कर उनकी सत्यता का अनुभव कर सकते हैं। धर्माचार सहित स्वाध्याय, ईश्वरोपासना, यज्ञीय जीवन, परोपकार एवं दान आदि द्वारा मनुष्य का जीवन सन्मार्ग पर चलते हुए ईश्वर की कृपा से उन्नति व सुखों को प्राप्त होता है। ईश्वर से ही धर्म परायण आत्माओं को सुख, शान्ति व सन्तोष प्राप्त होता है। वेदानुयायी मनुष्य अधिक धन व ऐश्वर्य की कामना न कर ईश्वर को जानने व उसका प्रत्यक्ष करने की ही अभिलाषा करते हैं तथा इसी को अपना सबसे मूल्यवान धन व सम्पत्ति मानते हैं। 

सत्य सनातन वैदिक धर्म का अध्ययन कर हम संसार में विद्यमान चेतन व अचेतन पदार्थों को भली प्रकार से जानने में समर्थ होते हैं। हमें मनुष्यों के सत्कर्तव्यों का भी बोध होता है। हम अहिंसा तथा सत्य आचरण का महत्व समझ सकते हैं। वेदों के अनुयायी आंखे बन्द कर धर्म विषयक बातों को स्वीकार नहीं करते। वह अविद्यायुक्त मत व पुस्तकों पर विश्वास न कर धर्म विषयक सभी मान्यताओं के सत्यासत्य की परीक्षा कर ही उन्हें स्वीकार करते हैं। पुनर्जन्म का सिद्धान्त चिन्तन एवं विचार करने पर सत्य सिद्ध होता है। इस कारण हम इस सिद्धान्त पर विश्वास करते व इसका प्रचार करते हैं। अग्निहोत्र यज्ञ हम इसलिये करते हैं कि इससे प्राण-वायु वा हवा युद्ध होती है। वायु की दुर्गन्ध का अग्निहोत्र से नाश होता है। रोग दूर होते हैं तथा मनुष्य स्वस्थ रहता है। यज्ञ करने से शारीरिक क्षमतायें बढ़ती हैं और हमें शुभ व पुण्य कर्मों को करने की प्रेरणा मिलती है। यज्ञ से आत्मा की उन्नति भी होती है। ज्ञान व विज्ञान की उन्नति में भी यज्ञ सहायक होता है। इसका कारण देवपूजा, संगतिकरण एवं शुभ गुणों का दूसरों को दान करना व दूसरों से दान लेना होता है। इसी विधि से देश व समाज की उन्नति होती है। समाज व देश की उन्नति सहित मनुष्य जीवन की उन्नति के लिये देव अर्थात् विद्वानों की पूजा, उनका आदर सत्कार तथा उनके ज्ञान व अनुभवों से लाभ उठाना आवश्यक होता है। यह कार्य यज्ञ से होता है। इसी प्रकार विद्वानों के साथ संगति होने से भी लाभ होता है। सभी दानों में विद्या का दान श्रेष्ठ होता है। सुपात्रों को अर्थ दान भी अनेक प्रकार से लाभ देता है। अतः सभी को यज्ञ को वायु शुद्धि, आत्म शुद्धि सहित इससे अन्य सम्भावित लाभों को भी प्राप्त करना चाहिये। 

यज्ञ के अतिरिक्त हम वेदों व ऋषियों के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, दर्शन एवं उपनिषदों का अध्ययन कर ईश्वर, आत्मा तथा प्रकृति से उत्पन्न जड़ पदार्थों के सत्यस्वरूप वा ज्ञान को भी प्राप्त होते हैं। ईश्वर व आत्मा का ज्ञान ही मनुष्य के लिए जीवन में सबसे अधिक महत्वपूर्ण होता है। हमें लगता है कि मात्र सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन करने से ही ईश्वर, आत्मा, प्रकृति व सृष्टि तथा मनुष्य के धर्म वा कर्तव्याकर्तव्यों का जो ज्ञान प्राप्त होता है वह मत-मतान्तरों के ग्रन्थों से प्राप्त नहीं होता। सत्यार्थप्रकाश सत्य के ग्रहण तथा असत्य के त्याग की प्रेरणा करता है। सत्यार्थप्रकाश जैसा संसार में मनुष्य रचित अन्य कोई ग्रन्थ नहीं है। यह भी बता दें कि संसार में केवल वेद ही ईश्वर से उत्पन्न व प्रेरित ग्रन्थ हैं तथा अन्य सभी ग्रन्थ व साहित्य मनुष्यों द्वारा रचित है। ईश्वर द्वारा रचित होने से वेद स्वतः प्रमाण ग्रन्थों की कोटि में हैं और अन्य सभी ग्रन्थ परतः प्रमाण कोटि में आते हैं। जो बातें किसी भी ग्रन्थ में वेदों की मान्यताओं व आशयों के विपरीत हैं वह अप्रमाण होती हैं। यह सिद्धान्त भी हमें ऋषि दयानन्द जी ने ही उपलब्ध कराया है। हमारा सौभाग्य है कि हम इस सिद्धान्त को जानते हैं और इसका पालन भी करते हैं। इस कारण भी हम संसार के भाग्यशाली मनुष्य हैं। इससे हम अज्ञान व अन्धविश्वासों को मानने से बचते हैं। वेद व वैदिक साहित्य अज्ञान, अविद्या, अन्धविश्वासों, पाखण्डों, कुरीतियों तथा सामाजिक असमानता विषयक मान्यताओं से सर्वथा रहित हैं। इसका लाभ भी हमें प्राप्त होता है और हम भी सभी दोषों व अवगुणों से रहित होते हैं। 

चारों वेद मनुष्य जीवन की ज्ञान विषयक सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। यह हमारे जीवन को सुधारते व संवारते हैं तथा इससे हमारा परजन्म भी उन्नत व श्रेष्ठ होता है। वैदिक धर्म का पालन करने से हम आनन्दमय मोक्ष व जन्म व मरण के दुःख देने वाले बन्धनों से छूटते हैं। यह मनुष्य जीवन के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। जीवन में धन व सम्पत्ति अर्जित कर सुख भोगने की इच्छा करने से उत्तम ईश्वर व आत्मा को जानकर ईश्वर की उपासना करना, ईश्वर के उपकारों को जानना व मानना तथा सत्कर्मों को करके पुण्य अर्जित करके दूसरों की उन्नति में सहायक होना अधिक महत्वपूर्ण है। वैदिक धर्म का पालन करने से मनुष्य जीवन की सभी आवश्यकतायें पूर्ण होती हैं। अतः मनुष्य जीवन में वेद धर्म का पालन ही उचित व आवश्यक है। हम इस वेद मत को जानते, मानते व पालन करते हैं अतः हम अन्य बन्धुओं से अधिक सौभाग्यशाली हैं। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह सभी मनुष्यों की आत्मा में सत्य को अपनाने तथा असत्य को छोड़ने की प्रेरणा करें जिससे सभी मनुष्य दुःखों से छूट कर विद्या एवं सुखों को प्राप्त हो सकें। 

-मनमोहन कुमार आर्य

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