“ऋषि दयानन्द ने वेदोद्धार सहित अन्धविश्वास एवं कुरीतियों को दूर किया था”



-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

प्रकाश करने की आवश्यकता वहां होती है जहां अन्धकार होता है। जहां प्रकाश होता है वहां दीपक जलाने वा प्रकाश करने की आवश्यकता नहीं होती। हम महाभारत काल के उत्तरकालीन समाज पर दृष्टि डालते हैं तो हम देखते हैं कि हमारा समाज अनेक अज्ञान व अविद्यायुक्त मान्यताओं के प्रचलन से ग्रस्त था। यदि इन अविद्यायुक्त अन्धविश्वासों पर दृष्टि डाली जाये तो हमें इसका कारण वेदज्ञान के प्रचार का न होना, मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध तथा अवतार आदि की कल्पना व व्यवहार मुख्य रूप से दृष्टिगोचर होते हैं। ईश्वर का वास्तविक स्वरूप हमें चार वेदों व उपनिषद आदि ग्रन्थों से प्राप्त होता है। वेदों का ज्ञान स्वयं सर्वव्यापक, सर्वज्ञ तथा सच्चिदानन्दस्वरूप ईश्वर से ही सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों को मिला है। वेदों में ईश्वर ने स्वयं अपने स्वरूप का परिचय दिया है। यजुर्वेद के चालीसवें अध्यान में परमात्मा ने स्वयं को अजन्मा, काया से रहित तथा नस-नाड़ी आदि के बन्धनों से रहित बताया है। अतः ईश्वर के मनुष्य के रूप में अवतार लेने व होने का खण्डन स्वयं ईश्वरीय ज्ञान वेदों से होता है। परमात्मा ने इस सृष्टि व ब्रह्माण्ड को बनाया है। ऐसा उसने अपने सच्चिदानन्द, सर्वज्ञ, अनादि, नित्य, निराकार, सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी स्वरूप से किया है। क्या यह कार्य छोटा कार्य था? यदि परमात्मा निराकारस्वरूप से सृष्टि की रचना, पालन व प्रलय आदि कार्य कर सकते हैं तो वह निश्चय ही रावण, कंस, दुर्योधन जैसे साधारण शरीरधारी जीवों का प्राणोच्छेद भी कर ही सकते हैं। आज भी प्रतिदिन वह बिना अवतार लिए लाखों वा करोड़ों लोगों व प्राणियों का प्राणोच्छेद करते ही हैं। 

देश देशान्तर में जब कहीं युद्ध आदि होते हैं तो उसमें एक समय में ही सैकड़ों वा हजारों लोग मरते हैं। उन सबका प्राणोच्छेद व मृत्यु ईश्वर द्वारा उनकी आत्मा को उनके शरीरों से पृथक करने पर ही होती है। अतः ईश्वर का अवतार लेना वेद सहित तर्क एवं युक्तियों से सिद्ध नहीं होता। ईश्वर विश्व व सृष्टि में जो भी कार्य कर रहा है, वह सब बिना किसी अवतार को धारण किये कर सकता है। अतः अवतार लेने व उसकी मूर्तिपूजा करने का विचार व धारणा सत्य के विपरीत एवं वेदविरुद्ध होने से विश्वास करने योग्य नहीं है। ऋषि दयानन्द को मूर्तिपूजा की निरर्थकता का बोध अपनी आयु के चैदहवें वर्ष में शिवरात्रि के अवसर पर शिवरात्रि की पूजा करते हुए हुआ था। मूर्तिपूजा सर्वव्यापक व सच्चिदानन्द की पूजा नहीं है, यह बात उनके समाधि अवस्था को प्राप्त होने, ईश्वर का साक्षात्कार करने तथा वेदों का सर्वांगरूप में अध्ययन करने पर सत्य सिद्ध हुई थी। इस कारण समाज को अज्ञान व अन्धविश्वासों से हो रहे पतन से निकाल कर मनुष्य की लौकिक एवं पारलौकिक उन्नति करने कराने के लिए उन्होंने मूर्तिपूजा व अवतारवाद का विरोध किया। इसके साथ ही ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के सत्यस्वरूप की उपासना का धारणा व ध्यान की विधि से स्तुति, प्रार्थना व उपासना करते हुए विधान किया जो कि सृष्टि के आरम्भ से न केवल गृहस्थ आदि सामान्य जन अपितु ऋषि, मुनि व महर्षि करते चले आ रहे थे। अति प्राचीन काल में ऋषि पतंजलि ने ईश्वर की उपासना पर विचार कर वेदानुकूल ईश्वर की उपासना का ग्रन्थ ‘‘योग दर्शन” रचा था। इसी योगदर्शन प्रदत्त अष्टांग-योग की विधि से उपासना करने से ईश्वर का साक्षात्कार एवं मोक्ष की प्राप्ति उपासक व साधक मनुष्य की आत्मा को होती है। 

ऋषि दयानन्द ने सत्य का प्रचार मौखिक उपदेशों व व्याख्यानों के द्वारा किया। इसके साथ ही उन्होंने अनेक विषयों पर अनेक ग्रन्थों की रचना भी की। सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा संस्कार विधि उनकी प्रमुख रचनायें हैं। वेदों का भाष्य उनका सबसे महत्वपूर्ण एवं महान कार्य है। स्वामी दयानन्द के वेदभाष्य से वेद के नाम पर प्रचलित सभी मिथ्या विश्वासों का खण्डन होता है तथा सत्य विश्वासों का प्रकाश होता है। स्वामी दयानन्द का वेदभाष्य इतिहास में अपूर्व है। यह भावी सभी वेदभाष्यकारों के लिये पथप्रदर्शक है। उनके भाष्य से ही विद्वानों को वेदार्थ शैली का ठीक ठीक ज्ञान होता है। वह आदर्श वेदभाष्यकार हैं। इस प्रकार से ऋषि दयानन्द ने देश देशान्तर में प्रचलित अविद्या व अन्धविश्वासों को दूर करने का प्रयत्न किया।

ऋषि दयानन्द ने सभी अन्धविश्वासों का आधार मूर्तिपूजा को माना है। उनके अनुसार ईश्वरीय ज्ञान वेदों में मूर्तिपूजा का विधान कहीं नहीं है और न ही यह ईश्वर की उपासना के लिये तर्क एवं युक्ति से पूर्ण है। मूर्तिपूजा वेद विरुद्ध होने तथा इसकी पुष्टि करने के लिये उन्होंने दिनांक 16 नवम्बर, सन् 1869 को काशी के 27 से अधिक शीर्ष पण्डितों से अकेले शास्त्रार्थ किया था। यह शास्त्रार्थ आज भी लेखबद्ध उपलब्ध होता है। इसको लेखबद्ध भी सम्भवतः ऋषि दयानन्द ने स्वयं ही किया है। इसे पढ़कर मूर्तिपूजा पर हुए शास्त्रार्थ में काशी के पण्डितगण किसी वेद मन्त्र, तर्क एवं युक्ति को अपने पक्ष में नहीं दे पाये थे जिससे इसका करना वेद व ज्ञान विज्ञान सम्मत सिद्ध होता। ऋषि दयानन्द ने यह भी सूचित किया है कि अट्ठारह पुराण ऋषि वेद व्यास की रचनायें नहीं हैं अपितु इनकी रचना ऋषि वेदव्यास जी मृत्यु के बाद मध्यकाल में की गई है। यह पुराण, प्राचीन पुराण ग्रन्थ न होकर अर्वाचीन ग्रन्थ है। प्राचीन पुराण ग्रन्थों का वास्तविक नाम वेद, ब्राह्मण, मनुस्मृति आदि ग्रन्थों पर सिद्ध होता है जो महाभारत युद्ध से भी प्राचीन हैं तथा जिनकी रचना प्राचीन वेद के ऋषियों ने वेदों के अर्थों के प्रचार प्रसार के लिये की थी। 

महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश को चौदह समुल्लासों में लिखा है जिसके प्रथम 10 समुल्लासों में वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों पर प्रकाश डालकर उनके सत्य व मान्य होने का मण्डन किया गया है। सत्यार्थप्रकाश के उत्तरार्ध के चार समुल्लास अवैदिक मतों की समीक्षा व खण्डन में लिखे गये हैं जिनमें मत-मतान्तरों में विद्यमान अविद्या व अज्ञान युक्त कथनों व मान्यताओं की समालोचना की गई है। इस समालोचना से वेदों की महत्ता सिद्ध होती है। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ऋषि दयानन्द का चार वेदों के भाष्य की भूमिकास्वरूप लिखा गया अपूर्व व महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में चार वेदों में सब सत्य विद्याओं के होने का दिग्दर्शन कराया गया है। इस ग्रन्थ से यह भी ज्ञात होता है कि वेद केवल यज्ञ आदि करने कराने के ग्रन्थ नहीं है जैसा कि कुछ मध्यकालीन आचार्यों ने समझा था। वेदों में सब सत्य विद्यायें होने से यह मनुष्यों के आचार विचार व धर्म के ग्रन्थ है। ऋषि दयानन्द ने वेदों के ज्ञान व आचरण को ही मनुष्य का परमधर्म बताया है और इसके नित्य प्रति पठन पाठन सहित प्रचार करने की प्रेरणा की है। ऋषि दयानन्द ने वेदों के प्रचार प्रसार द्वारा देश व समाज से अविद्या दूर करने के लिए 10 अप्रैल सन् 1875 को आर्यसमाज नाम से एक संगठन व आन्दोलन की स्थापना की थी। यह आन्दोलन अज्ञान दूर करने तथा ज्ञान व विद्या के प्रचार करने का आन्दोलन है। ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में सभी अन्धविश्वासों व मिथ्या परम्पराओं का खण्डन भी किया था। उन्होंने स्त्री व शूद्रों को वेदाध्ययन एवं वेदप्रचार का अधिकार दिया। मूर्तिपूजा के स्थान पर निराकार ईश्वर की पूजा व ध्यान करना सिखाया। ऋषि ने दैनिक यज्ञ व अग्निहोत्र को सबके लिये करणीय एवं लौकिक एवं पारलौकिक उन्नति का आधार बताया वा सिद्ध किया। ऋषि दयानन्द ने ही सबसे पहले देश की आजादी के लिये प्रेरणा की थी और ऐसा करते हुए स्वदेशीय राज्य को सर्वोपरि उत्तम बताया था। 

ऋषि दयानन्द के अनुयायियों ने सबसे अधिक क्रान्तिकारी व हिंसा रहित शान्तिपूर्ण आन्दोलनों में भाग लिया। देश से अविद्या दूर करने के लिये आर्यसमाज ने देश में डीएवी स्कूल व कालेज सहित वेद वेदांग के केन्द्र गुरुकुल स्थापित किये। समाज से जन्मना जातिवाद तथा छुआछूत को दूर करने का आन्दोलन किया। बाल विवाह को समाप्त कराया तथा कम आयु की विधवाओं के पुनविर्वाह को स्वीकार किया। ऋषि दयानन्द ने पूर्ण युवावस्था में युवक व युवतियों के विवाह का समर्थन किया और इसके प्रमाण भी वेद व वेदानुकूल ग्रन्थ मनुस्मृति आदि से दिये। ऋषि दयानन्द ने जन्मना जातिवाद को दूर कर उसके स्थान पर गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारिक वैदिक वर्ण व्यवस्था का प्रचार किया। सद्गृहस्थ सहित वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रम का सत्यस्वरूप भी देश व समाज के समाने रखा। देश की उन्नति में सर्वाधिक योगदान यदि किसी एक व्यक्ति व संगठन का है तो वह व्यक्ति व संगठन ऋषि दयानन्द व आर्यसमाज ही हैं। ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के महत्व से परिचित होने के लिये देशवासियों को ऋषि दयानन्द का सत्यार्थप्रकाश तथा उनका जीवनचरित्र विशेष रूप से पढ़ने चाहिये। ऋषि के अन्य ग्रन्थ पढ़ने से भी मनुष्य की सभी शंकायें व भ्रान्तियां दूर होती हैं। हम अनुमान से कह सकते हैं कि यदि ऋषि दयानन्द वेदों का उद्धार वा वेदों का प्रचार कर अन्धविश्वासों तथा कुरीतियों का खण्डन कर समाज सुधार का कार्य न करते तो देश की वह उन्नति, जो आज हम देख रहे हैं, कदापि न होती। ऋषि दयानन्द ने वेदेां के आधार पर नये समाज व देश का निर्माण करने की नींव रखी थी। जब तक देश देशान्तर से अज्ञान व अविद्या पूरी तरह से दूर नहीं हो जाते, उनका कार्य अधूरा ही रहेगा।

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