आल्ह छंद में एक गीतिका...

शीर्षक : "पुरुषार्थ"


पाखंडी मानव वह होता, जो करता खुद का गुणगान।

मात्र रेत पर जो चलता है, मिटते उसके कदम निशान।।1


गीली हो अथवा सूखी हो, स्थिर रहती कभी न रेत।

चिकनापन जब थोड़ा मिल जाता, मिट्टी की बढ़ जाती शान।।2


आलसवश जो निष्क्रिय रहते , उनको मिलता कभी न त्राण

पाषाणों पर अंकित करते, कर्मवीर श्रमसाध्य प्रमाण।।3


बिना कर्म फल कभी न पाते, धरती पर रहते जो जीव।

फलदाता ईश्वर के आगे, सब प्राणी हैं एक समान।।4


नित्य नई ऊँचाई छूते, जिनके तन-मन में स्फूर्ति।

शक्ति भरी पंखों में जिनके,  उनके आगे खुला वितान।।5


हार-निराशा नहीं डिगाती, मनुज धरे यदि मन में धीर।

गहन रात्रि के बाद जगत में, नित आता है शुभ्र विहान।6


असफलता से नित्य सीख ले, उत्तम उन्नत करता कार्य।

अपनी सोच और दम खम से, मानव बनता तभी महान।।7




कर्नल प्रवीण त्रिपाठी


: समीक्षा न्यूज

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