“पृथिवी आदि लोकों का आकाश में भ्रमण का सिद्धान्त वेदों की देन है”



-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द ने ईश्वर प्रदत्त ज्ञान चार वेदों की भूमिका स्वरूप जिस ग्रन्थ का निर्माण किया है उसका नाम है ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’। इस ग्रन्थ में ऋषि दयानन्द जी ने चार वेदों के मन्त्रों के प्रमाणों से अनेक ज्ञान विज्ञ़़ान से युक्त विषयों को प्रस्तुत किया है। सृष्टि विद्या विषय भी इस ग्रन्थ में सम्मिलित है। इस प्रकरण सहित आधुनिक ज्ञान विज्ञान के कुछ अन्य विषय भी इस ग्रन्थ में सम्मिलित हैं। ऋषि दयानन्द की मान्यता है कि वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है और सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेदों के इस महत्व के कारण ही वह इन्हें सब मनुष्यों का प्रमुख धर्म ग्रन्थ मानने के साथ इसका सभी के लिये पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना अनिवार्य व परमधर्म मानते हैं। परम धर्म मनुष्य का परम कर्तव्य होता है। इस कारण से सब मनुष्यों को किसी भी ग्रन्थ का अध्ययन करने से पूर्व व अध्ययन करते हुए निष्पक्ष भाव से ईश्वरीय ज्ञान होने के कारण वेदों का अध्ययन भी करना चाहिये। इससे मनुष्य को अनेक लाभ होते हैं। मनुष्य की अविद्या दूर हो जाती है। वह ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति व सृष्टि के यथार्थ स्वरूप को जान लेता है। ऐसा होने पर वह भ्रम व शंका आदि से ग्रस्त नहीं होता। उसका पूरा जीवन सद्ज्ञान से युक्त होकर सद्कर्मों को करते हुए व्यतीत होता है जिससे उसके पूरे जीवन में सुख, शान्ति व सन्तोष रहता है। वह कभी निराश नहीं होता और न ही उसे मिथ्या ज्ञान से युक्त ग्रन्थों को पढ़ने व उनका आचरण करने का दुःख व क्षोभ होता है। वेदाध्ययन व वेदाचारण से ही मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष प्राप्त होते हैं। मनुष्य का इहलोक व परलोक दोनों सुधरते हैं। हमारा यह जीवन हमारे पुनर्जन्म का आधार व कारण है। हमारा यह जन्म जितना ज्ञान व सद्कर्मों से युक्त होगा, उतनी ही अधिक मात्रा में हमारी परजन्मों में उन्नति होगी और हमें उसके अनुरूप ही सुख आदि भी प्राप्त हांेगे। अतः वेदों की शरण में आकर मनुष्य अपने जीवन का सुधार कर सुख व शान्ति प्राप्त करने सहित परम आनन्द से युक्त मोक्ष के पथिक बन सकते हैं। 

महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में वेदों के आधार पर पृथिवी आदि लोकों के भ्रमण का विषय भी प्रस्तुत किया है। इस प्रकरण में उन्होंने यजुर्वेद एवं ऋग्वेद के मन्त्रों के आधार पर विषय को प्रस्तुत किया है और प्रमाणों के साथ हिन्दी भाषा में वेदनिहित ज्ञान को प्रस्तुत किया है। यहां हम ऋषि द्वारा प्रस्तुत विषय को प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं पृथिवी आदि लोक घूमते हैं वा नहीं, इस विषय में लिखा जाता है। वह कहते हैं कि यह सिद्धान्त है कि वेदशास्त्रों के प्रमाण ओर युक्ति से भी पृथिवी और सूर्य आदि सब लोक घूमते हैं। यहां घूमने का अर्थ भ्रमण करना व सूर्य आदि ग्रहों की परिक्रमा करना है। इस विषय में वेदों में जो वर्णन मिलता है उसके अनुसार पृथिवी, सूर्य, चन्द्रमादि लोकों को ‘गौ’ कहा जाता है। ये सब अपनी परिधि में, अन्तरिक्ष के मध्य में सदा घूते रहते हैं परन्तु जो जल है, सो पृथिवी की माता के समान है क्योंकि पृथिवी जल के परमाणुओं के साथ अपने परमाणुओं के संयोग से ही उत्पन्न हुई है और मेघमण्डल के जल के बीच में गर्भ के समान सदा रहती है और सूर्य उसके पिता के समान है। इससे सूर्य के चारों ओर पृथिवी घूमती है। इसी प्रकार सूर्य का पिता वायु और आकाश माता के समान है। चन्द्रमा का अग्नि पिता और जल माता के समान हैं। उनके प्रति वे घूमते वा परिक्रमा करते हैं। इसी प्रकार से सब लोक लोकान्तर अपनी अपनी कक्षा में सदा घूमते हैं। ऋषि बताते हैं कि सूत्रात्मा जो वायु है उसके आधार और आकर्षण से सब लोकों का धारण और भ्रमण होता है। परमेश्वर अपने सामथ्र्य से पृथिवी आदि सब लोकों का धारण, भ्रमण और पालन कर रहा है। 

ऋग्वेद मन्त्र ‘या गौर्वत्र्तनिं पर्येति निष्कृतं पयो दुहाना व्रतनीरवारतः। सा प्रबु्रवाणा वरुणाय दाशुषे देवेभ्यो दाशद्धविषा विवस्वते।।’ में परमात्मा ने लोकों के भ्रमण के विषय में बताया है। गौ नाम का अभिप्राय यह है कि जिनके लिये यह गौ शब्द प्रयोग में आया है वह लोक अपने अपने मार्ग में घूमता और पृथिवी अपनी कक्षा में सूर्य के चारों ओर घूमती है अर्थात् परमेश्वर ने जिस जिस के घूमने के लिए जो मार्ग निष्कृत अर्थात् निश्चय किया है उस उस मार्ग में सब लोक घूमते हैं। वह गौ अनेक प्रकार के रस, फल, फूल, तृण और अन्नादि पदार्थों से सब प्राणियों को निरन्तर पूर्ण करती है तथा अपने अपने घूमने के मार्ग में सब लोक सदा घूमते घूमते नियम ही से प्राप्त हो रहे हैं। जो विद्यादि उत्तम गुणों का देनेवाला परमेश्वर है, उसी के जानने के लिये सब जगत् दृष्टान्त है और जो विद्वान् लोग हैं उनको उत्तम पदार्थों के दान से अनेक सुखों को भूमि देती और पृथिवी, सूर्य, वायु और चन्द्रमादि गौ ही सब प्राणियों की वाणी का निमित्त भी हैं। 

ऋग्वेद का मन्त्र है ‘त्वं सोम पितृभिः संविदानोऽनु द्यावापृथिवी आ ततन्थ। तस्मै त इन्दो हविषा विधेम वयं स्याम पतयो रयीणाम्।’ इस मन्त्र में ईश्वर ने उपदेश किया है चन्द्रलोक पृथिवी के चारों ओर घूमता है। कभी कभी सूर्य और पृथिवी के बीच में आ जाता है। इस मन्त्र का उपदेश करते हुए ऋषि दयानन्द कहते हैं कि द्यौः नाम प्रकाश करने वाले सूर्य आदि लोक और जो प्रकाशरहित पृथिवी आदि लोक हैं, वे सब अपनी अपनी कक्षा में सदा घूमते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि सब लोक आकाश में भ्रमण करते हैं।  

वेदों से हमें जो ज्ञान प्राप्त हुआ व हो रहा है वही बात विज्ञान से भी ज्ञात होती है। महाभारत युद्ध के बाद वेदों का लोप होने से ज्ञान व विज्ञान की उन्नति प्रभावित हुई थी। संसार में वर्तमान समय में अनेक मत-मतान्तर प्रचलित हैं। सबके अपने अपने ग्रन्थ हैं। शायद ही किसी ग्रन्थ में लिखा हो कि पृथिवी सहित जितने लोक लोकान्तर विद्यमान हैं वह सब गतिशील हैं एवं आकाश में भ्रमण कर रहे हैं। अनेक ग्रन्थों में विज्ञान की सत्य बातों के विपरीत वर्णन व कथन देखने को मिलते हैं। इतिहास में ऐसे भी उदाहरण है कि जिस वैज्ञानिक ने प्रथम पृथिवी को गोल कहा था उसे मत विशेष के लोगों व आचार्यों ने प्रताड़ित किया था। यदि संसार के लोग मत-मतान्तरों की अविद्या में न फंसे होते और वेदों का अध्ययन करते तो संसार में ज्ञान व विज्ञान का प्रकाश रहता और इससे हमारे जो पूर्वज अतीत में अज्ञान व अन्धविश्वासों में अपना जीवन व्यतीत कर गये हैं, वह अज्ञानता के दुःख से बच जाते। ऋषि दयानन्द (1825-1883) की कृपा हुई कि उन्होंने सत्य की खोज व उससे मानने व मनवाने का अपने जीवन का मिशन बनाया और मत-मतान्तरों की अविद्यायुक्त बातों को स्वीकार न कर सत्य की खोज की। आज का युग ज्ञान व विज्ञान पर आधारित है। सर्वत्र उन्नति देखने को मिलती है परन्तु आज भी मत-मतान्तर अपनी पुस्तकों में निहित ज्ञान व विज्ञान के विपरीत बातों को न तो छोड़ पा रहे हैं न उनमें वेद व इतर ज्ञान के आधार पर आवश्यक संशोधन व परिमार्जन ही कर पा रहे हैं। हमारा सौभाग्य है कि हम भारत में उत्पन्न हुए और हमें ऋषि दयानन्द व उनके विचारों का ज्ञान प्राप्त है। हम वेदों की मान्यता सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करने में विश्वास रखते हैं व इस नियम का  पालन करते हैं। वेदों को अपनाकर व असत्य व मिथ्या ज्ञान का त्याग कर ही मानव जाति की यथार्थ उन्नति हो सकती है जिससे लोक व परलोक दोनों सुधरते हैं। यह कार्य ईश्वर की प्रेरणा व कृपा से ही सम्पन्न हो सकता है। ईश्वर करे कि सभी मनुष्य असत्य का त्याग और सत्य के ग्रहण के लिये तत्पर हों। वेदों के सत्य वेदार्थ को अपनायें और ‘विश्व बन्धुत्व’ तथा ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के लक्ष्य को साकार करें। इसकी आज सर्वाधिक आवश्यकता है।

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