“गुरुकुल शिक्षा प्रणाली मनुष्य जीवन का सर्वांगीण विकास होता है”



गुरुकुल शिक्षा प्रणाली विश्व की सबसे प्राचीन शिक्षा प्रणाली है। महाभारत के समय तक इसी प्रणाली से लोग विद्याध्ययन करते थे। इसी शिक्षा पद्धति का अनुसरण कर हमें ऋषि, मुनि, योगी, धर्म प्रचारक, विद्वान, आचार्य, उच्च कोटि के ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूरवीर आदि मिला करते थे। महाभारत युद्ध के कुछ वर्षों बाद वैदिक धर्म का प्रचार व प्रसार अवरुद्ध हो गया था। ऋषि परम्परा भी अवरुद्ध हो गई थी। गुरुकुलों का संचालन व अध्ययन अध्यापन भी बाधित हुआ था। इसी कारण से संसार में अज्ञान फैला और इससे अन्धविश्वास एवं सामाजिक कुरीतियों ने जन्म लिया था। समय बीतने के साथ अज्ञान, अन्धविश्वासों, पाखण्डों तथा सामाजिक कुरीतियों में वृद्धि हुई थी। इन्हीं के कारण हमारा धार्मिक एवं सामाजिक पतन होने के साथ हम गुलाम भी हुए थे। महाभारत के बाद यदि वैदिक धर्म व संस्कृति का प्रचार व प्रसार पूर्ववत् होता रहता तो हमारे गुरुकुल भी स्थापित व संचालित रहते और उस स्थिति में देश देशान्तर में अज्ञान व अन्धविश्वासों की वृद्धि न होने से देश देशान्तर में अवैदिक मत उत्पन्न न होते और पूरा विश्व वैदिक संस्कृति के वाक्य ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के आदर्श को सिद्ध करने वाला होता। 

मनुष्य की उन्नति ज्ञान तथा शारीरिक बल की प्राप्ति व वृद्धि से मुख्यतः होती है। अज्ञान ही मनुष्य की उन्नति में सबसे बाधक कारक होता है। अतः मनुष्य को सद्ज्ञान प्राप्त करने तथा शारीरिक उन्नति पर विशेष ध्यान देना चाहिये। इन दोनों लक्ष्यों की पूर्ति हमारे प्राचीन गुरुकुलों से होती थी और वर्तमान गुरुकुल भी इन लक्ष्यों को प्राप्त कराने में समर्थ हैं। हम जब ज्ञान शब्द पर विचार करते हैं तो इसमें सभी प्रकार का ज्ञान सम्मिलित होता है। भौतिक पदार्थों के ज्ञान सहित सामाजिक ज्ञान भी मनुष्य की उन्नति में आवश्यक होता है। इन दोनों प्रकार के ज्ञान के अतिरिक्त मनुष्य को इस संसार की रचना करने व पालन करने वाली शक्ति ईश्वर सहित शरीर आत्मा व इनके गुण, कर्म व स्वभाव का भी यथोचित ज्ञान होना चाहिये। मनुष्य को ईश्वर, देश व समाज सहित अपने परिवार के प्रति कर्तव्यों का भी उचित ज्ञान होना चाहिये। आजकल इस ज्ञान की कमी सर्वत्र अनुभव की जाती है। बड़े बड़े विद्वान कहलाने वाले व्यक्ति भी ईश्वर व आत्मा सहित मनुष्यों के कर्तव्यों तथा सामजिक ज्ञान विज्ञान से न्यून व हीन देखे जाते हैं। इस ज्ञान की पूर्ति ही वेद एवं वैदिक साहित्य सहित हमारे गुरुकुल किया करते थे और अब भी कर रहे हैं। वैदिक धर्म एवं संस्कृति के प्रचार व रक्षा के लिए ही प्राचीन काल में गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ था। यही गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली प्राचीन काल से प्रचलित रही और आज भी यह प्रासंगिक एवं सार्थक है और आज भी यह शिक्षा प्रणाली हमें वैदिक विद्वान, पुरोहित, आचार्य, उपदेशक, पत्रकार, शासकीय अधिकारियों सहित समाज के लिए आवश्यक सभी प्रकार के योग्य युवा प्रदान कर रही है। यह सुनिश्चित है कि वेद एवं वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा हो सकती है तो वह गुरुकुलों सहित वेद प्रचार तथा सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों की शिक्षा आदि के प्रचार से ही हो सकती है। 

गुरुकुलों का मुख्य उद्देश्य संस्कृत भाषा तथा इसके व्याकरण सहित वेद एवं वैदिक साहित्य का उच्चस्तरीय अध्ययन कराना होता है। वेदों के अध्ययन से ही मनुष्य के जीवन व व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास व उन्नति होती है। वेदों के अध्ययन से ही मनुष्य को ईश्वर, जीव तथा प्रकृति के सत्यस्वरूप तथा इनके गुण, कर्म व स्वभावों का यथार्थ व सत्य सत्य बोध होता है। महर्षि मनु ने वेदों को धर्म का मूल कहा है। धर्म कर्तव्यों के ज्ञान व पालन को कहते हैं। बिना वेदों के मनुष्य को अपने सभी कर्तव्यों का सम्यक् बोध प्राप्त नहीं होता। मनुष्य जीवन का क्या उद्देश्य है, इसका ज्ञान भी वेदों के अध्ययन व पालन से ही होता है। वेदों के अनुसार मनुष्य का आत्मा अनादि, नित्य, अनुत्पन्न, अविनाशी, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, अल्पशक्ति, कर्मों का कर्ता तथा अपने किये हुए कर्मों के फलों का भोक्ता होता है। मनुष्य जो कर्म करता है उसका कुछ भोग इस जन्म में व शेष बचे हुए कर्मों का भोग इस जन्म के बाद दूसरे जन्म व उनके बाद के जन्मों में होता है। कर्मों के फल भोगने के लिए ही मनुष्य का जन्म होता है। इसी कारण से अनादि काल से जीवात्मा के निरन्तर जन्म होते आ रहे हैं। अनन्त काल तक इसी प्रकार से सृष्टि की रचना, पालन व प्रलय होती रहेगी तथा प्रत्येक कल्प व सृष्टि में जीवात्मायें वा मनुष्य आदि प्राणी अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार कर्मों के फल भोगने के लिए ईश्वर की व्यवस्था से जन्म लेते रहेंगे।

हमारा यह जन्म भी हमारे पूर्वजन्म के कर्मों का फल भोगने एवं नये कर्मों को करने के लिए हुआ है। मृत्यु के बाद हमारा पुनर्जन्म होना सुनिश्चित है। इस विषय को वेद सहित उपनिषद, दर्शन, गीता, सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में भी बताया व समझाया गया है। संसार में ऐसे अनेक मत हैं जो पूर्वजन्म व पुनर्जन्म को न तो जानते हैं और न ही मानते हैं। इस कारण से वह अपने पुनर्जन्म व परजन्म को सुन्दर व श्रेष्ठ, सुखी व कल्याणप्रद बनाने के लिए प्रयत्न भी नहीं करते। वेद एवं वैदिक धर्म हमें बताते हैं कि जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म का होना निश्चित है। हम चाहें तो इस जन्म में शुभ कर्मों को अधिक मात्रा में करके और अशुभ व पाप कर्मों का त्याग कर अपने परजन्म को सुखी, कल्याणकारी, उत्तम व श्रेष्ठ बना सकते हैं। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए ही वेद एवं वैदिक साहित्य में नित्य प्रति पंचमहायज्ञों व मनुष्य के पांच कर्तव्यों के पालन का विधान किया गया है। इन पंचमहायज्ञों तथा त्यागपूर्ण वैदिक जीवन व्यतीत करने से मनुष्य धर्म, अर्थ, काम सहित मोक्ष सुख को भी प्राप्त होता है। मोक्ष अवस्था प्राप्त होने पर सभी योनियों में जन्म-मरण होने पर जिन दुःखों से जीवात्मा को गुजरना पड़ता है, उससे मुक्ति वा सर्वथा निवृत्ति हो जाती है। जीवात्मा के सभी क्लेश नष्ट हो जाते हैं। इस तथ्य व रहस्य को जानने के कारण ही हमारे प्राचीन पूर्वज व विद्वान वेदानुकूल जीवन व्यतीत करते थे और पंचमहायज्ञों का पालन किया करते थे। इसी कारण से ऋषि दयानन्द ने जहां ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ऋग्वेद तथा यजुर्वेद भाष्य, सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय, संस्कारविधि आदि ग्रन्थों की रचना की, वहीं पंचमहायज्ञविधि ग्रन्थ की भी रचना की थी जिससे पंचमहायज्ञ करने के कारणों, प्रमाणों एवं विधि का ज्ञान भी होता है। मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना मनुष्य का शाश्वत् व सनातन लक्ष्य रहा है और अनन्त काल तक जीवात्मा का यही प्रमुख लक्ष्य बना रहेगा। अतः सभी मनुष्यों को यथासम्भव इस लक्ष्य की प्राप्ति के विषय में सत्यार्थप्रकाश का नवम समुल्लास पढ़कर अपना ज्ञान बढ़ाना चाहिये और मुक्ति प्राप्ति के लिये जो कर्म, आचरण व अनुष्ठान किये जाते हैं उन्हें करने का प्रयत्न भी करना चाहिये। 

वेद सृष्टिकाल के आरंभ में परमात्मा से प्रदत्त ज्ञान है जिससे मनुष्य की इहलौकिक एवं पारलौकिक उन्नति होती है। वेदों जैसा ज्ञान संसार में कहीं नहीं है। बिना वेदज्ञान के मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य समझ में नहीं आता। वेद परमात्मा की वाणी है और यह संस्कृत भाषा में है। इस भाषा और वेदों के ज्ञान का अध्ययन ही हमारे गुरुकुलों में कराया जाता है। इस ज्ञान को प्राप्त होकर मनुष्य को इस संसार के प्रायः सभी रहस्यों का यथार्थ बोध होता है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को पढ़कर भी हमें वेद तथा संसार के रहस्यों का यथार्थ बोध होता है। जो मनुष्य गुरुकुलों में नहीं पढ़े और वैदिक संस्कृत वा आर्ष व्याकरण को नहीं जानते, उनके लिए सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ अमृत के तुल्य है। सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर मनुष्य अपने जीवन को वेदमार्ग पर चलाते हुए धर्मपथ, कर्तव्यपथ तथा मोक्षपथ पर आगे बढ़ सकते हैं। इसी वेदज्ञान को गुरुकुलों में आचार्यों से विधिवत् व उनके श्रीमुख से पढ़कर वेदों का सूक्ष्मता से ज्ञान होता है और ऐसा विद्वान वेद व वैदिक साहित्य के मर्म को जान सकता है। गुरुकुलों के हमारे ब्रह्मचारी व विद्वान हमारी धर्म व संस्कृति के रक्षक होते हैं। वह वेदाचरण कर वेदों का संदेश जन साधारण में प्रचारित व प्रसारित करते थे। वैदिक धर्म के प्रचार व प्रसार सहित धर्मरक्षा के कार्यों में हमारे गुरुकुलों व यहां अध्ययन करने वाले ब्रह्मचारियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। हम सबको गुरुकुलों के संचालन, संवर्धन सहित गुरुकुलों के कार्यों में यथाशक्ति सहयोग करना चाहिये जिससे हमारे यह गुरुकुल अपने उद्देश्य को पूरा कर सकें। वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा हो सके। वैदिक धर्म के महत्व का सन्देश पूरे संसार में फैल जाये और अविद्यायुक्त मत-मतान्तर संसार से सूर्योदय पर अन्धकार की निवृत्ति के समान दूर व समाप्त हो जायें। हमारे गुरुकुलों का संचालन करने वाले संन्यासी, आचार्य, सभी सहयोगियों व ब्रह्मचारियों को भी हम अपनी ओर से धन्यवाद एवं शुभकामनायें देते हैं व सबको नमन करते हैं। हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि यदि गुरुकुल होंगे तो इन गुरुकुलों में भविष्य में ऋषि, मुनि, योगी, वेदाचार्य, राम, कृष्ण, शंकर तथा दयानन्द जैसे ऋषि व महापुरुष उत्पन्न हो सकते हैं। ईश्वर हमारे गुरुकुलों को सुव्यवस्थित करने में सहयोग करें और इनसे अतीत की भांति वेद रक्षा व धर्म रक्षा यथावत् होती रहे। 

-मनमोहन कुमार आर्य

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