“माता पिता की सेवा से आशीर्वाद एवं जीवन में सुख मिलता है”



मनुष्य एक मननशील प्राणी है। इसका आत्मा ज्ञान व कर्म करने की शक्ति से युक्त होता है। मनुष्य को ज्ञान अपने माता, पिता व आचार्यों से मिलता है। माता-पिता सन्तानों को श्रेष्ठ आचरण की शिक्षा देते हैं। आचार्य भी वेद व ऋषियों के ग्रन्थों सहित आधुनिक विषयों का ज्ञान अपने अपने शिष्य व विद्यार्थियों को कराते हैं। ऐसा करके ही मनुष्य ज्ञानवान होता है। जिस मनुष्य के माता पिता धार्मिक विद्वान होते हैं उतना ही अधिक उन सन्तानों का उपकार होता हैं। धर्म का अर्थ मनुष्य जीवन में धारण करने योग्य श्रेष्ठ गुणों व कर्तव्यों का धारण व आचरण करना होता है। धार्मिक माता पिता का अर्थ भी सत्य ज्ञान से युक्त तथा श्रेष्ठ आचार करने वाले माता पिता होते हैं। ऐसे माता पिता की सन्तानें उत्तम होती हैं। सन्तानों को माता पिता से सत्याचरण सहित श्रेष्ठ आचरण की शिक्षा मिलती है। यदि मनुष्य को श्रेष्ठ व उत्तम आचरण वाले वेदों के ज्ञानी आचार्य मिल जाते हैं तो मनुष्य का सर्वविधि कल्याण होता है। धार्मिक माता पिता तथा आचार्यों से पालन पोषण व विद्या को प्राप्त होकर मनुष्य के व्यक्तित्व का समुचित विकास होता है। वह अपने कर्तव्यों को भली भांति जानता व समझता है तथा उनके पालन में वह तत्पर रहता है। अपने सभी कर्तव्य का पालन करना सभी मनुष्यों का धर्म होता है। जो मनुष्य अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते वह देश व समाज में निन्दित होते हंै। सत्य के विरुद्ध व्यवहार करना सभी के लिए अनुचित होता है। मनुष्य को लोभ में फंस कर कभी भी कोई अकर्तव्य व अनुचित कार्य नहीं करना चाहिये। मनुष्य को अपने किए हुए प्रत्येक कर्म का फल ईश्वर द्वारा समयान्तर पर मिलता है। मनुष्य जीवन में ऐसा कोई भी कर्म नहीं होता जिसे मनुष्य करे और उसे उसका फल न मिले। कर्म फल सिद्धान्त का आवश्यक मन्त्र है ‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं’ अर्थात् मनुष्य को अपने प्रत्येक कर्म का फल सुख व दुःख के रूप में अवश्य ही भोगना पड़ता है। हमारे जीवन में हमें जो सुख व दुःख मिलते हैं, जिसका कारण हमें समझ में नहीं आता, वह हमारे अतीत व पूर्वजन्म में किये कर्म ही हुआ करते हैं। अतः मनुष्य को अशुभ कर्मों का त्याग तथा अपने कर्तव्य कर्मों का आलस्य व प्रमाद से रहित होकर सेवन व पालन करना चाहिये। ऐसा आचरण ही हम विद्वानों व महापुरुषों के जीवन में देखते हैं। 

सभी सन्तानों को अपने माता व पिता की श्रद्धापूर्वक सेवा करनी चाहिये। माता पिता की सेवा व पूजा करना वैदिक धर्म एवं संस्कृति का मुख्य सिद्धान्त है। वैदिक परम्परा में कहा गया है कि मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव। मनुष्य के लिए संसार में सबसे अधिक सत्कार करने योग्य अपनी माता ही होती है। माता को देवी कहा जाता है। देवी या देवता दिव्य गुणों से युक्त तथा दूसरों पर उपकार करने वाले स्त्री व पुरुषों को कहते हैं। माता, पिता व आचार्य चेतन देव होते हैं। पृथिवी, अग्नि, जल, वायु तथा आकाश आदि जड़ देवता होते हैं। इन जड़ पदार्थों में भी अनेक दिव्य गुण हैं जिनका लाभ व उपकार हम अपने जीवन में इनसे लेते हैं। इसलिये इन पदार्थों के प्रति भी हमारा कृतज्ञता व श्रद्धा का भाव होना चाहिये। माता व पिता संसार के वह दो महान व्यक्तित्व होते हैं जिनसे सन्तान का जन्म होता है। माता पिता को गर्भ धारण व प्रसव में अनेक कष्ट व दुःख होते हैं। दस महीने तक निरन्तर सन्तान को गर्भ में धारण करना होता है। इससे माता को अकथ कष्ट होता है। यह कष्ट सहन करना कोई आसान काम नहीं होता। प्रसव में भी तीव्र पीड़ा होती है। पुराने समय में तो कई माताओं की प्रसव पीड़ा से मृत्यु तक हो जाती थी। सन्तान के जन्म के बाद सन्तान की रक्षा व उसके पालन में भी माता व पिता दोनों को ही अनेक कष्ट व दुःख उठाने पड़ते हैं।

सभी माता-पिता अपनी सन्तान को शिक्षित करते हैं। उसे स्वयं पढ़ाते व विद्यालय में भेजकर भारी व्यय उठाते हैं। उसके सुखों व भविष्य के लिये चिन्तित रहते हैं। अपने बच्चों को आश्रय व अच्छा निवास देते हैं और अपने से भी अधिक अपनी सन्तान का ध्यान रखते हैं। बड़ा होने पर सन्तान का विवाह आदि कर अपने कर्तव्य से निवृत्त होते हैं। सन्तान बड़ी होती है तो माता-पिता भी वृद्धावस्था के द्वार पर पहुंच जाते हैं। इस अवस्था में उनको अपनी सन्तानों से अच्छे मधुर व्यवहार सहित सेवा व पोषण की आवश्यकता होती है। वृद्धावस्था में वह कोई काम नहीं कर सकते। उन्हें कुछ रोग भी आ घेरते हैं। ऐसे समय में माता पिता को आश्रय सहित उनको भोजन, वस्त्र, ओषधि, चिकित्सा, सेवा व सन्तानों के मधुर व्यवहार की आवश्यकता होती है। अतः सन्तान को अपने इन सभी कर्तव्यों की पूर्ति श्रद्धा एवं निष्ठा से अवश्य ही करनी चाहिये। जो सन्तान ऐसा करते हैं वह यशस्वी एवं प्रशंसित होते हैं। न केवल माता-पिता का अपितु ईश्वर का आशीर्वाद भी उनको प्राप्त होता है। माता-पिता की सेवा सत्कर्तव्य होने से सन्तानों को इसका तात्कालिक एवं प्रारब्ध कर्मों के रूप में परजन्म में भी लाभ प्राप्त होता है। वह जन्म जन्मान्तरों में माता पिता की आत्माओं से निकले आशीर्वादात्मक वचनों से उन्नति करते हुए सुखों को प्राप्त होते हैं। अतः सभी सन्तानों को अपने माता-पिताओं के प्रति कर्तव्य पालन पर ध्यान देना चाहिये और प्रतिदिन उनकी सेवा करते हुए उन्हें किसी प्रकार का किंचित भी कष्ट नहीं होने देना चाहिये। यही हमारे वेद आदि शास्त्रों का उपदेश है। 

अनादि, नित्य तथा सनातन वैदिक धर्म में सभी मनुष्यों के पांच कर्तव्य होते हैं जिनमें तीसरा कर्तव्य व धर्म पितृयज्ञ करना होता है। यह पितृयज्ञ माता, पिता को सत्करणीय चेतन देव मानकर उनकी श्रद्धापूर्वक सेवा से उनको सन्तुष्ट करना होता है। इतिहास में भी माता पिता की सेवा के अनेक उदाहरण मिलते हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम राम अपने माता-पिता के प्रति आदर बुद्धि रखते थे। राज्य के अधिकारी होने पर भी वह अपने पिता के वचनों का पालन करने के लिए बिना पिता द्वारा आज्ञा दिए ही 14 वर्ष के लिए वन में चल गये थे। उन्होंने अपनी सभी माताओं एवं पिता का आदर्श मनुष्य के रूप में पालन किया था। आज अनेक युग व्यतीत हो जाने पर भी उनका यश पूरे विश्व में व्याप्त है। श्रवण कुमार ने भी अपने माता पिता की आदर्श सेवा की। आज भी हम समाज में माता पिता की श्रद्धा व निष्ठा पूर्वक सेवा करने वाले तथा न करने वाले दोनों प्रकार की सन्तानों को देखते हैं। हमें वैदिक परम्पराओं का पालन करते हुए नित्य प्रति अपने माता पिता की व्रतपूर्वक श्रद्धापूर्वक सेवा करनी चाहिये। ऐसा करके ही हमारा पितृयज्ञ करना सफल होगा। जो सन्तानें अपने माता-पिता की सेवा नहीं करती वरन् उनको अपने व्यवहार व आचरणों से अनुचित कष्ट पहुंचाती हैं वह निन्दनीय होती हैं। वह सामाजिक नियमों से तो बच सकती हैं परन्तु परमात्मा की कर्म फल व्यवस्था से बच नहीं सकती। उनको भी भविष्य में वृद्ध होना है। उनको भी अपनी सन्तानों के प्रेम, सहयोग एवं सेवा की आवश्यकता होगी। यदि उन्होंने अपने माता-पिता की सेवा नहीं की होगी तो उनको शिकायत करने का अवसर नहीं मिलेगा। 

जो मनुष्य किसी से कुछ भी उपकार लेता है और उसके प्रति कृतज्ञ नहीं होता वह कृतघ्न कहलाता है। कृतघ्नता सबसे बड़ा पाप होता है। हमें अपने जीवन व कर्मों पर ध्यान देना चाहिये और कृतघ्न कदापि नहीं होना चाहिये। हमें परमात्मा द्वारा प्रवृत्त वैदिक धर्म मर्यादा के अनुसार ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना उपासना करने सहित अपने माता, पिता, वृद्ध पारिपारिक जनों तथा आचार्यों की सेवा करनी चाहिये और जीवन में यथाशक्ति परोपकार व दान आदि के कार्य करने चाहिये। ऐसा करके ही हमारा वर्तमान व भविष्य का जीवन तथा परजन्म उन्नत व सुखदायक होंगे।   

-मनमोहन कुमार आर्य

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