फुले व बाबा साहेब की फैलती जा रही है विचारधारा: सिकंदर यादव, वरिष्ठ समसजेवी



पिछले एक दशक की बात की जाये तो भारत में फुले व अंबेडकर की विचारधारा तेजी से फैलती जा रही है, प्रतिवर्ष अप्रेल में दोनों महापुरुषों को नमन किया जाता है, हालांकि हमारे देश में कुछ संगठन व पार्टी इस विचारधारा को दबाने हेतु तरह-तरह के प्रयास व प्रोपेडेंडा चलाते रहते हैं, अधिकतर धर्म को आधार बनाकर, इसे दबाने का प्रयास किया जा रहा है, जो अब भी सोशल मीडिया के माध्यम से इसका प्रयास किया जा रहा है, यदि देखा जाये तो आधुनिक भारत के सबसे बड़े सामाजिक क्रांति के अग्रदूत महात्मा ज्योतिबा फूले ही हैं जिन्होंने अंग्रेजों के समय वो बातें उठाई जो आज आजाद भारत में भी करना कठिन है, इस देश के पिछड़े दलित शोषित ज्योतिबा फुले को राष्ट्रपिता के रूप में देखते हैं, ज्योतिबा फुले ने भारत की सबसे बड़ी समस्या जातिवाद व वर्णवाद पर प्रहार किया व इसके रचिताओं को खुलेआम चुनौती थी, जो बाद में जाकर बाबा साहब के लिए प्रेरणा बनी, ज्योतिबा फुले का मानना था कि भारत की अधिकांश जनता चंद लोगों द्वारा अपने स्वार्थ सिद्ध करने हेतु शोषित की जा रही है, जिसमें सबसे बड़े हथियार के रूप में धार्मिक कर्मकांड व पाखंड है जिसका सहारा लेकर भारत की अधिसंख्य जनता को शिक्षा व समानता से दूर रखा गया,

जिसके कारण भारत को हजारों साल गुलामी में गुजारने पड़े, उनका मानना था जबतक किसी राष्ट्र के नागरिकों को समान अधिकार नहीं दिया जाए तबतक वो राष्ट्र शक्तिशाली नहीं बन सकता, इसके लिए उन्होंने गुप्त-काल का उदाहरण दिया, जब भारत सोने की चिड़िया कहलाया था, उस समय इस देश में शूद्रों का राज था, जिसमें न्याय व समानता थी जिसके कारण भारत का वैभव पूरी दुनिया में फैला, ज्योतिबा फुले ने गुलामगिरी में सीधे-सीधे इस व्यवस्था पर प्रहार किया है आगे चलकर इस विचारधारा को बाबा साहब ने भारत के संविधान का आधार बनाया, किसी राष्ट्र की उन्नति उसकी एकता व न्याय में छुपी होती है, यदि हम अपने राष्ट्र के लोगों को समान अवसर व न्याय नहीं देंगे तो एक राष्ट्र के रूप में हम असफल हो जाएंगे, बाबा साहेब ने संविधान की मूल भावना इन बातों को बताया स्वतंत्रता, समानता और न्याय यही वो मूल मंत्र हैं, जबकि भारत में हजारों साल से चली आ रही वर्ण-व्यवस्था इसके विपरीत थी, वो वर्ण जाति व लिंग के आधार पर भेद करती थी, यही कारण है कि आज आधुनिक भारत में ज्योतिबा फूले व बाबासाहेब को मानने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, बाबासाहेब या ज्योतिबा फुले किसी वर्ण या जाति के खिलाफ नहीं थे वो व्यवस्था के खिलाफ थे उन्होंने शोषण का विरोध किया, किस वर्ण का नहीं, आज पूरी दुनिया में पितृसत्ता के खिलाफ आवाज उठाई जा रही है, पितृसत्ता का अर्थ पुरुष को श्रेष्ठ व स्त्री को हीन समझता है जब की प्रकृति पुरुष और नारी को समान बनाती है, दोनों को समान अवसर व न्याय मिलना चाहिए बस इसी को आप फुले-अंबेडकरवाद कह सकते हैं क्योंकि वो दोनों किसी भी आधार पर भेदभाव का विरोध करते थे चाहे वह जाति धर्म या लिंग आधार पर हो



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