हवा कभी गवाही नहीं देती थी



हवा की अपनी एक भाषा थी

जिसे सब सुनते थे 


इत्रों को छू कर आती थी

तो खुश्बू उसकी भाषा थी


मुर्दों को छू कर आती थी

तो बदबूँ उसकी भाषा थी


खेतों को छू कर आती थी

तो अन्न उसकी भाषा थी


बगानों को छू कर आती थी

तो फल उसकी भाषा थी


कितनी भी कोई हवा-हवाई कर ले

कितनी भी कोई हवा बाँध दे

कितना ही कोई कटघरे में खड़ा करे


हवा कभी झूठी गवाही नहीं देती थी,

एक हवा ही थी, जो

अपनी भाषा का अर्थ समझती थी


हवा बदल रही है ! 

हवा बदल रही है ! !

हवा बदल रही है ! ! !


यह हवा की नहीं,

लोगों की अपनी भाषा थी।



राकेश चौहान

जिला सूचना अधिकारी

गाजियाबाद/गौतमबुद्धनगर, उत्तर प्रदेश


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