साहिबाबाद। कई विद्वानों का मत है कि यदि भारत और भारत के लोगों को जानना है, तो संत कबीर को पढ़ें। सत्य, सद्भाव, समता, प्रेम की प्रतिमूर्ति, संत शिरोमणि, महान दार्शनिक, बेजोड़ समाज सुधारक, कर्म योगी आजीवन आडंबर, अंधविश्वास, अन्याय के विरोध में संघर्षरत महात्मा कबीर का जन्म व जन्म स्थान रहस्यमय है, किंवदंतियों के अनुसार कहा जाता है कि जेष्ठ पूर्णिमा को बनारस के पास लहरतारा नामक तालाब के किनारे कमल दल पर ओजस्वी बालक की रोने की आवाज सुनकर निसंतान दंपत्ति नीरू, नीमा जो जाति के जुलाहा थे अपने घर ले आकर उनका लालन-पालन किया। बड़े होकर कबीर साहिब भी अपने पुश्तैनी कार्य कपड़ा बुनने में लग गए, जीविकोपार्जन के साथ-साथ आपकी रूचि के अनुरूप अध्यात्म व सामाजिक कार्यों के बारे में चिंतन मनन में लग गयी, चूँकि 600 वर्ष पहले भारत में रूढ़िवाद, जातिवाद, पाखंड चरम पर था, हिंदू-मुस्लिम झगड़े भी देश में व्याप्त थे आपने दोनों समुदायों में पाखंड के विरुद्ध अलख जगाकर सद्भाव, प्रेम, भाईचारा का संदेश दिया आपका चिंतन आज भी मानव जाति के कल्याण के लिए उतना ही प्रासंगिक है जितना पहले, आपने समाज में सहिष्णुता का संदेश दिया। कबीर साहिब ने गुरु रामानन्द से दीक्षा ली लेकिन वे दकियानूसी संत नहीं थे वह मूर्ति पूजा का अनवरत खंडन कर रहे थे वह ज्ञान मार्गी शाखा के संत हैं, ब्राह्मणवादी, जाति व्यवस्था की लीक से हटकर चलें-
“लीक, लीक कायर चले लीकये चले कपूत। बिना लीक तीनो चले, शायर, सिंह, सपूत”।
“तू कहता कागद की लेखी।मैं कहता आंखों की देखी”।
कर्मकाण्डी ब्राह्मणों के बारे में कबीर साहब का कथन है कि ‘मैं अनुभव की बात करता हूं तू झूठ, भ्रम, अंधविश्वास फैलाकर भोली-भाली जनता का शोषण करता है, उन्हें सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा नहीं देता”। कबीर साहब के सामने जो जैसी भाषा का प्रयोग करता उसका उत्तर तैयार मिलता था। “कहा जाता है कि वे सिर से पैर तक मस्त मौला, स्वभाव के फक्कड़, आदत से अक्खड़, भक्त के आगे निरीह, भेषधारी के आगे प्रचंड, दिल के साफ, दिमाग से दुरुस्त, भीतर से कोमल, बाहर से कठोर, जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वंदनीय हैं। कबीर साहब ने न केवल हिंदू धर्म में व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार किया, मुस्लिम भाइयों को संदेश दिया उनका कथन है कि-
“काकड, पाथर जोड़कर मस्जिद लई बनाय। ता चढ़ी मुल्ला बाग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय”।
“पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजू पहाड़।ताते यह चाकी भली पीस खाए संसार”।
कबीर साहब के बारे में विद्वानों का मत है कि “भारत को समझना है तथा सामाजिक समरसता, समतामूलक, धर्मनिरपेक्ष, आडंबररहित, अंधविश्वास मुक्त देश, समाज बनाना है तो कबीर को पढ़ना, समझना आवश्यक है”, आज विचारणीय है कि समाज में धोखा, ठगी, लूट, दूसरे के धन का अपहरण, लोभ बढ़ रहा है। कबीर साहब कहते हैं कि “कबिरा आप ठगाइये, और न ठगिये कोय। आप ठगे सुख उपजे, और ठगे दुःख होय”। आप अहंकार व दूसरे पर छींटाकशी को बहुत ही निष्कृष्ट मानते थे उनका कथन है कि “कबिरा गर्व न कीजिए, कबहुं न हसिबा कोय। अबही नाव समुद्र में, ना जाने का होय”।
कबीर साहब समाज में अध्यात्म में सबसे अधिक ‘प्रेम’ को माना, उनका कथन है कि “पोथी पढ़-पढ़ जग मुवा, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय”। आध्यात्मिक जगत में आपने कहा है कि ‘यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाय। सीस उतारे भुई धरे। तब बैठे मन माहि”।
कबीर साहब पढ़े, लिखे नहीं थे उनका कथन है कि “मसि, कागद छुयो नहीं, कलम गही ना हाथ। सुनी. सुनाई ना कहीं, देखन, देखी बात”। कबीर की रचनाएं उनके दिए उपदेशों व गाये भजनों से संकलित उनके शिष्यों ने की, उनकी भाषा सधुक्कड़ी है, रमता जोगी, बहता पानी को चरितार्थ किया है, अर्थात उनके उपदेश में जो उन्होंने जिया वही संदेश दिया, डॉक्टर हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि “कबीर वाणी के डिक्टेटर हैं, भाषा उनके सामने लाचार हो जाती है, उनमें अर्रे देकर (बलपूर्वक) अपनी बात मनवाने की अद्भुत क्षमता है। कबीर आंतरिक पवित्रता चाहते हैं, वाह्य आडंबर के विरोधी हैं, उनका कहना है कि “मन ना रंगाये, रंगाये जोगी कपड़ा” उनकी रचनाएं साखी, सबद, रमैनी में संकलित पद व दोहों में जीवन का सार छिपा है, वह ऊंच-नीच, जात-पात, असमानता, मानव का मानव के शोषण के विरुद्ध थे तथा समता, समानता, बंधुत्व, प्रेम, भाईचारा, धार्मिक एवं सामाजिक एकता का संदेश देना चाहते थे। वह हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल पक्षधर थे, कहा करते थे कि “इन दोउ राह न पायी।
कबीर साहब का जन्म जितना रहस्यमय है उतना ही उनका देहावसान कर्मकाण्डी ब्राम्हण कहा करते थे कि जो काशी में जीवन त्यागता है वह स्वर्ग में जाता है कबीर साहब ने इस महा झूठ का भी खंडन किया व तर्क देकर कहा कि “जौ काशी तन तजे कबीरा, रामै कौन निहोरा”। अर्थात उस राम की क्या हम पर कृपा है, एहशान है, वे मगहर चले गए इस भ्रांति को दूर करने के लिए तथा भरपूर जीवन जी कर पार्थिव शरीर त्याग दिया तथा संदेश दिया “दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया” उन्होंने कहा कि “मेरो मन निर्मल भयो, जैसे गंगा नीर” “खोजत, खोजत हरि फिरे, कहत कबीर, कबीर”।
आज उस महान संत के संदेश का महत्व और भी बढ़ जाता है, जब विश्व आतंक, अशांति से ग्रस्त है, कट्टरवादी, पाखंडी तकते मानवता के दुश्मन बन निर्दोष, मासूमों का खून बहा रही हैं, विकासशील देशों का विकसित देश आर्थिक शोषण कर रहे हैं, संसार बारूद के ढेर पर खड़ा है, हिंदू को मुस्लिम से, मुस्लिम को हिंदू से डराकर शक्ति प्राप्त की जा रही है। कबीर का क्रांतिकारी विचार “कबिरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ। जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ”। अंधकार का विनाश कर सत्य मार्ग पर चलकर, सर्वस्य न्योछावर कर मानवता को बचाने का कार्य करने की प्रेरणा देता है।
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