-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
आज रविवार दिनांक 13-7-2025 को हमें आर्यसमाज धामावाला, देहरादून के साप्ताहिक सत्संग में सम्मिलित होने का अवसर मिला। सत्संग का आरम्भ प्रातः 8.00 बजे यज्ञ से हुआ। इसके बाद भजन एवं सामूहिक प्रार्थना हुई। आज का प्रवचन आर्यसमाज के विद्वान् 54 वर्षीय आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री जी का था। आचार्य सहारनपुर निवास करते हैं और वहीं से प्रातः देहरादून पधारे थे। उनके प्रवचन की कुछ मुख्य बातों को हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री जी ने श्रोताओं को बताया कि अपने आप अर्थात् अपनी आत्मा को जानने की विद्या को आध्यात्म विद्या कहते हैं। हम अपने आपको अपनी आत्मा, मन व बुद्धि की सहायता से जान सकते हैं और इन साधनों के द्वारा इस सृष्टि के कर्ता, धर्ता और हर्ता परमेश्वर को भी जान सकते हैं।
आर्यसमाज के विद्वान आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री ने सुख व आनन्द की चर्चा की और इन दोनों अनुभूतियों के अन्तर को बताया। उन्होंने कहा कि सुख भोगने पर मनुष्य की तृप्ति नहीं होती। मनुष्य को भूख लगती है तो उसे भोजन करने पर सुख मिलता है। परन्तु यह सुख अस्थाई होता है। कुछ देर बाद पुनः उसे भूख लग जाती है। ऐसा ही अनेक प्रकार के सुखों में होता है। सुख भोगने के कुछ समय बाद ही उनका प्रभाव कम हो जाता है और मनुष्य को आवश्यकतानुसार पुनः पुनः सुख के अन्य साधनों की आवश्यकता पड़ती है। आचार्य जी ने कहा कि भौतिक साधनों से मनुष्य को स्थाई सुख की प्राप्ति नहीं होती। उन्होंने बताया कि साधना करने से स्थाई सुख मिलता है। विद्वान आचार्य ने कहा कि हमारे जीवनों से साधना समाप्त हो चुकी है। जब तक मनुष्य के जीवन में साधना नहीं आयेगी उसे आनन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती। साधनों से मनुष्यों को सुख नहीं मिलता है वास्तविक व दीर्घकालीन सुख उसे साधना करने पर ही प्राप्त होता है।
आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री जी ने कहा कि वैदिक सत्संगों में जाने पर मनुष्य को वास्तविक सुख मिलता है और उनके ्ज्ञान व विद्या में वृद्धि भी होती है। सुख और आनन्द का भोक्ता मनुष्य का आत्मा होता है। उन्होंने आगे कहा कि स्वयं भोजन करने पर मनुष्य को सुख मिलता है तथा दूसरों को भोजन कराने से उसे आनन्द की प्राप्ति होती है। पं. वीरेन्द्र शास्त्री जी ने कहा कि जीवन की उन्नति का आधार ईश्वर की उपासना होता है। आचार्य जी ने बताया कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम चन्द्र जी ने वेदों को पढ़ा था, उन्होंने वेदों की शिक्षाओं का पालन भी किया था जिससे उनके जीवन की उन्नति हुई थी और आज भी उनका यश विद्यमान है। आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री जी ने श्रोताओं को बताया कि ईश्वर का निज नाम ओ३म् है। ईश्वर का यह निज नाम ओ३म् वेदों में ईश्वर में स्वयं रखा व मनुष्यों को बताया है। उन्होंने कहा मनुष्य का गुण व कर्म वाचक नाम क्रतु अर्थात् कर्मों को करने वाला है। आचार्य जी के अनुसार ईश्वर सब कालों में सब मनुष्यों वा प्राणियों की रक्षा करने वाला है, इसलिये उसका नाम ओ३म् है। आचार्य जी ने आगे कहा कि ईश्वर पाप, काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या व द्वेष आदि आन्तरिक शत्रुओं से हमारी रक्षा करने वाला है। ईश्वर की उपासना से इन आन्तरिक शत्रुओं पर विजय पायी जाती है। आचार्य जी के अनुसार बाहर के शत्रुओं पर विजय पाना सरल है परन्तु अपने शरीर के भीतर के शत्रुओं काम, क्रोध आदि को जीतना कठिन है। उन्होंने कहा कि बाहर के शत्रुओं को जीतने वालों को वीर कहा जाता है जबकि भीतर के शत्रुओं को जीतने वालों को महावीर कहा जाता है।
आर्यसमाज के युवा विद्वान आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री जी ने कहा कि जो सन्तोषी जन होते हैं उन्हें सब रत्नों की प्राप्ति होती है। अपने वक्तव्य को विराम देते हुए उन्होंने कहा कि हम परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि हम अपनी भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की उन्नति करें। आर्यसमाज के प्रधान श्री सुधीर गुलाटी जी ने श्री वीरेन्द्र शास्त्री जी का आज के प्रेरणादायक उपदेश के लिए धन्यवाद किया। उन्होंने कुछ सूचनायें भी दीं। कार्यक्रम का समापन संगठन सूक्त, आर्यसमाज के नियमों के पाठ सहित शान्तिपाठ एवं जयघोषों से किया गया। आज के आयोजन में बड़ी संख्या में सदस्य-सदस्यायें उपस्थित हुए, इनमें कुछ नाम हैं श्री कुलभूषण कठपालिया, श्री धीरेन्द्र मोहन सचदेव जी, श्री पवन कुमार, श्री बसन्त कुमार, श्री देवकी नन्दन, श्री देवेन्द्र सैनी, माता जगजीत चौधरी, श्री चन्द्रपाल आर्य, श्री प्रीतमसिंह आर्य, श्री सतीश आर्य जी आदि।
-मनमोहन कुमार आर्य
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