हमारा यह जन्म मनुष्य योनि मे हुआ था और हम अपनी जीवन यात्रा पर आगे बढ़ रहे हैं। हमें पता है कि कालान्तर में हमारी मृत्यु होगी। ऐसा इसलिये कि सृष्टि के आरम्भ से आज तक सृष्टि में यह नियम चल रहा है कि जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु अवश्य ही होती है। गीता में भी यह सिद्धान्त प्रतिपादित है जो कि वेद एवं वैदिक शास्त्रों से भी अनुमोदित है। मनुष्य को जीवन में सुख व दुःख की अनुभूतियां होती है। किसी को कम होती हैं तो किसी को अधिक। दो मनुष्यों के सुख व दुःख में समानता नहीं होती। इसके अनेक कारण होते हैं। हमें अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देना चाहिये। जो देते हैं वह अन्यों की तुलना में अपवादों को छोड़ कर स्वस्थ, सुखी एवं दीर्घायु होते हैं। हम संसार में यह भी देखते हैं कि अधिकांश लोगों को स्वास्थ्य के नियमों का ज्ञान नहीं है। अतः वह स्वास्थ्य के नियमों का पालन करें, ऐसी अपेक्षा उनसे नहीं की जा सकती। जो लोग स्वास्थ्य के नियमों को जानते हैं वह भी अनेक बार अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए स्वास्थ्य के नियमों का उल्लंघन करते हुए देखे जाते हैं। अतः हमें अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देना चाहिये और स्वस्थ जीवन के रहस्य को जानकर उससे जुड़े नियमों का निष्ठापूर्वक पालन करना चाहिये। इससे हम अपने जीवन में होने वाले दुःखों को काफी कम कर सकते हैं तथा सुखों को बढ़ा सकते हैं।
हमारे दुःखों का कारण आहार, निद्रा, ब्रह्मचर्य पर आधारित भी बताया जाता है और यह ठीक भी है। हमारा आहार पौष्टिक एवं सन्तुलित होने सहित समय पर कम मात्रा में होना चाहिये जिसमें हमें भोजन विषयक सिद्धान्तों का ध्यान रखना चाहिये। हमें उचित मात्रा में निद्रा भी लेनी चाहिये। कम या अधिक निद्रा लेने का स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। निद्रा का आदर्श समय रात्रि दस बजे से प्रातः 4.00 बजे तक का है। ब्रह्मचर्य का अर्थ अपनी सभी इन्द्रियों सहित मन को वश में रखना होता है और उसे सार्थक, उपयोगी व हितकर तथा आवश्यक कार्यों में लगाने के साथ इसे नियमित रूप से सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय एवं ईश्वर के चिन्तन व ध्यान में भी लगाना चाहिये। यदि हम संयम से रहते हैं और हमारी सभी इन्द्रियां वश में है तथा हम सुख भोग के शास्त्रीय नियमों का पालन करते हैं तो इसका अर्थ है कि हम ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे हैं। हमने जो लिखा है वह ब्रह्मचर्य से सबंधित सामान्य बात व सिद्धान्त है। ब्रह्मचर्य पर अनेक वैदिक विद्वानों यथा डा. सत्यव्रत सिद्धान्तांकार, स्वामी ओमानन्द सरस्वती तथा स्वागी जगदीश्वरानद सरस्वती के ग्रन्थ उपलब्ध हैं। स्वामी दयानन्द के सभी ग्रन्थों में भी ब्रह्मचर्य संबंधी विचार विद्यमान है। वीर्य रक्षा भी ब्रह्मचर्य का एक आवश्यक अंग है। इन सबका अध्ययन कर इस विषय को गहराई से समझा जा सकता है। ऐसा करके हम अपने जीवन को सामान्य मनुष्यों से अधिक स्वस्थ रख सकते हैं।
हमें जीवन में जो सुख व दुःख मिलते हैं उसका एक कारण हमारे कर्म होते हैं। हमनें कर्मों को हमने इस जन्म में किया होता है और पूर्वजन्मों में भी किया हुआ है। जिन कर्मों का हम फल भोग चुके होते हैं इससे इतर जो बचे हुए शुभ व अशुभ कर्म होते हैं वह भी हमारे सुख व दुःख का कारण होते हैं। पूर्वजन्म के अभुक्त कर्मों को ही प्रारब्ध कहा जाता है। इसी से हमारे इस जन्म वा योनि का निर्धारण जगतपति ईश्वर करते हैं। इस जन्म में बाल्याकाल के बाद हम जो कर्म करते हैं वह भी स्वरूप से पाप व पुण्य या शुभ व अशुभ कर्म कहलाते हैं। इनमें से क्रियमाण कर्मों का फल तो हमें साथ साथ मिल जाता है, कुछ कर्मों का कुछ समय व्यतीत होने पर मिलता है तथा शेष बचे हुए कर्मों के कारण हमारा आगामी जन्म का प्रारब्ध बनता है उससे हमारा पुनर्जन्म व उसकी योनि व जाति निर्धारित होने के साथ आयु व सुख दुःख आदि भोग भी निर्धारित होते हैं। अतः सुखों की वृद्धि व दुःखों से बचने के लिये हमें शुभ व पुण्य कर्म ही करने चाहिये तथा अशुभ व पाप कर्मों का सेवन पूर्णतया बन्द कर देना चाहिये। शुभ व अशुभ कर्मों का ज्ञान हमें वेदादि शास्त्रों सहित ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों से भी होता है। सुख की प्राप्ति में हमारे स्वाध्याय सहित ईश्वरोपासना तथा अग्निहोत्र देवयज्ञ आदि पंचमहायज्ञों एवं परोपकार के कार्यों व सुपात्रों को दान आदि का भी महत्व होता है। ऐसा करके हम परजन्म में अपनी जाति, आयु व भोगों में उन्नति कर उत्तम परिवेश की मनुष्य जाति में जन्म प्राप्त कर सकते हैं और वहां रहते हुए हम वेदादि शास्त्रों के अनुकूल आचरण करते हुए मोक्षमार्ग के पथिक बनकर जन्म जन्मान्तरों में जन्म व मरण से अवकाश अर्थात् अवागमन से मुक्त होकर मोक्षावधि 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों तक ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त कर दुःखों से सर्वथा मुक्त तथा आनन्द से युक्त रह सकते हैं। यही मनुष्य जीवन प्राप्त कर आत्मा का लक्ष्य होता है। यही सबके लिए प्राप्तव्य होता है। हमारे प्राचीन सभी ऋषि, मुनि, योगी, ईश्वरोपासक, विरक्त, यज्ञ करने वाले मोक्ष मार्ग के पथिक ही हुआ करते थे। ऐसा करने से ही वस्तुतः मनुष्य जीवन कल्याण को प्राप्त होता है। इससे न केवल मनुष्य जीवन को लाभ होता है वहीं ऐसा अधिक होने पर समाज में सुख व शान्ति भी आती है।
हमें संसार को समझने के साथ अपनी आत्मा तथा परमात्मा के स्वरूप व गुण-कर्म-स्वभाव को भी जानना चाहिये और आत्मा की उन्नति में सहायक ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना आदि वैदिक कर्मों को करके सुखों की प्राप्ति करनी चाहिये। हमें यह ज्ञात होना चाहिये कि हमारा आत्मा एक चेतन सत्ता वाला अनादि व नित्य पदार्थ है। यह सूक्ष्म है जिसे हम आंखों से नहीं देख सकते। इसके अस्तित्व का ज्ञान जीवित मनुष्य व अन्य प्राणियों के शरीरों की क्रियाओं को देखकर होता है। आत्मा अविनाशी एवं जन्म-मरण धर्मा है। जन्म का कारण जीवात्मा के पूर्वजन्म के वह अभुक्त कर्म सिद्ध होते हैं जिनका उसे भोग करना होता है। यह सत्य वैदिक सिद्धान्त है कि जीवात्मा को किये अपने सभी शुभ व अशुभ जिन्हें पुण्य व पाप कर्म भी कहते हैं, अवश्य ही भोगने पड़ते हैं। परमात्मा सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी सत्ता है। वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अनादि, अनुत्पन्न, सर्वाधार, जीवों को कर्म फल प्रदाता तथा सृष्टिकर्ता है। परमात्मा भी अनादि तथा नित्य सत्ता है। वह अनादि काल से, जिसका कभी आरम्भ नहीं है, इस विशाल सृष्टि को बनाता तथा इसका पालन करता चला आ रहा है। सृष्टि की अवधि पूर्ण होने पर वही इसकी प्रलय करता है और प्रलय की अवधि पूरी होने पर वही पुनः इस सृष्टि की उत्पत्ति करता है जिससे अनादि व नित्य चेतन जीव अर्थात् आत्मायें अपने अपने कर्मों के अनुसार सुख व दुःख का भोग कर सकें। मनुष्य को किन कर्मों का सेवन करना है, इसका पूरा ज्ञान व विज्ञान परमात्मा ने अपने नित्य ज्ञान चार वेदों में दिया हुआ है। यह वेद ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को दिया था। चार ऋषियों से लेकर अद्यावधि हुए ऋषियों व वैदिक विद्वानों ने वेदज्ञान की अद्यावधि रक्षा की है। वेदज्ञान का स्वाध्याय कर उसके अनुरूप जीवन व्यतीत करना तथा वेदों की रक्षा करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। जो इसके विपरीत आचरण करते हैं वह ईश्वरीय दण्ड के पात्र होते व हो सकते हैं। अतः सबको मर्यादाओं का पालन करते हुए वेदों की रक्षा करनी चाहिये और ईश्वरीय वेदाज्ञाओं का पालन कर अपने जीवन को सफल करना चाहिये।
मनुष्य जीवन का लक्ष्य जन्म व मरण अर्थात् आवागमन से मुक्त होना होता है। इसका संक्षिप्त वर्णन हम सत्यार्थप्रकाश के नवम समुल्लास से कर रहे हैं। पाठकों को चाहिये कि वह सत्यार्थप्रकाश और इसका नवम समुल्लास अवश्य पढ़े। इससे उन्हें मनुष्य जीवन की उन्नति विषयक अनेक सत्य रहस्यों का ज्ञान होगा। यह ऐसा ज्ञान है जो संसार के अन्य ग्रन्थों में इतनी उत्तमता से प्राप्त नहीं होता। ऋषि दयानन्द मुक्ति वा मोक्ष के विषय में बताते हुए कहते हैं कि मुक्ति किसको कहते है? उत्तर- जिस में छूट जाना हो उसका नाम मुक्ति है। प्रश्न- किससे छूट जाना? उत्तर- जिस से छूटने की इच्छा सब जीव (मनुष्य आदि प्राणी) करते हैं। प्रश्न- किससे छूटने की इच्छा करते हैं? उत्तर- जिससे छूटना चाहते हैं। प्रश्न- किससे छूटना चाहते हैं? दुःख से। प्रश्न- छूट कर किस को प्राप्त होते हैं और कहां रहते हैं? उत्तर- सुख को प्राप्त होते और ब्रह्म (सर्वव्यापक आनन्दस्वरूप ईश्वर) में रहते हैं। प्रश्न- मुक्ति और बन्ध किन-किन बातों से होता है? उत्तर- परमेश्वर की आज्ञा पालने, अधर्म, अविद्या, कुसंग, कुसंस्कार, बुरे व्यसनों से अलग रहने और सत्यभाषण, परोपकार, विद्या, पक्षपातरहित न्याय, धर्म की वृद्धि करने, परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अर्थात् योगाभ्यास करने, विद्या पढ़ने, पढ़ाने और धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करने, सब से उत्तम साधनों को करने और जो कुछ करें वह सब पक्षपातरहित न्यायधर्मानुसार ही करें। इत्यादि साधनों से मुक्ति और इन से विपरीत ईश्वराज्ञाभंग करने आदि काम करने से बन्ध होता है।
ऋषि दयानन्द ने मोक्ष व मुक्ति पर जो ज्ञानामृत प्रस्तुत किया है उसका एक छोटा अंश ही हमने उपर्युक्त पंक्तियों में प्रस्तुत किया है। इस समुल्लास का सभी जिज्ञासुओं को बार बार अध्ययन करना चाहिये जिससे उनके जीवन का सुधार हो सके और वह कल्याण मार्ग के पथिक बन सकें। हमने मनुष्य जीवन तथा उसके लक्ष्य मोक्ष की संक्षिप्त चर्चा इस लेख में की है। हम आशा करते हैं कि पाठकों के लिए यह लेखयह लाभप्रद होगा। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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